कौन कहता है कि हिन्दू मुस्लिम एकता इस देश मे बौनी पड़ गई है ? अगर आप को इसकी जीवंत तस्वीर देखनी है तो एकबार चंदेरी जरूरी जाइये जहां हिन्दू मुस्लिम एकता की बेजोड़ सामाजिक स्थिति देखने को मिलेगी । इस एकता को मजबूती से एक माला में पिरोने का काम करती है यहाँ की बुंदेली संस्कृति से बनाई जाने वाली चंदेरी साड़ियाँ ।
मध्य प्रदेश के एतिहासिक स्थान के नाम पर पड़ा:
इस कला को यह नाम मिला है- मध्य प्रदेश के ऐतिहासिक स्थान ‘चंदेरी’ के नाम से। चंदेरी, हाथ का बुना हुआ कपड़ा होता है जो अपने अनोखे और मुलायम बनावट के लिए मशहूर है। कपड़े में यह गुण बुनाई में इस्तेमाल किए गए महीन धागे से नहीं बल्कि एक फ्लेचर वाले धागे से आता है। इस तरह के धागे में कच्चे धागे की सरेस को निकाला नहीं जाता और सरेस को निकाले बगैर इस तरह छोड़ देने से तैयार कपड़े को एक पारदर्शी चमक मिलती है। इसका पारदर्शी धागा या तो सूत का हो सकता है या रेशम का, पर 90% चंदेरी साड़ियां सूत और रेशम के मिश्रण से बनती हैं। यह कपड़ा पिछले 600 सालों से, मुगलों के जमाने से बनता आ रहा है।
खत्म होती जा रही चंदेरी कला:
चंदेरी साड़ी मध्य प्रदेश की देन है। इस साड़ी की बुनाई जिसे चंदेरी कहा जाता है यह काफी प्राचीन काल की बुनाई शैली है। 2 और 7 वीं शताब्दी के बीच इसे शुरू किया गया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार बताया जाता है की भगवान कृष्ण के चचेरे भाई शिशुपाल ने जिस चंदेरी को स्थापित किया था। उसी कपड़े को मूल रूप से प्योर सिल्क, चंदेरी कपास और रेशम कपास में मिलाकर चंदेरी की साड़ी तैयार की जाती है। ये साड़ी पहनने में और वजन में एकदम हल्की होती है साथ ही गर्मियों के लिए एकदम सही होती है।
मध्य प्रदेश के चंदेरी की हथकरघा कला जो देखता है, वही कायल हो जाता है, लेकिन इससे जुड़ा दूसरा सच यह है कि उद्योग जैसे-जैसे व्यवसायिक गति पकड़ता जा रहा है, परंपरागत साड़ियां लुप्त होती जा रही हैं. चंदेरी के बुनकर कम समय में कम लागत की अधिक बिकने वाली साड़ियां बनाने में अधिक रुचि ले रहे हैं. चंदेरी के बुनकरों की कला और उससे जुड़ी बारीकियां भी ओझल हो रही हैं. चंदेरी की कई ऐसी परंपरागत साड़ियां हैं, जिन्हें बुनने वाले उंगलियों पर गिनने लायक़ बचे हैं. द्वापर युग से लेकर आज तक चंदेरी अपना अस्तित्व बनाए हुए है.
तीन प्रकार की साड़ियां परंपरागत रूप से बनाई जाती रही हैं, नाल फरमा, बानेवार एवं मेंहदी भरे हाथ. इन साड़ियों के कारण ही चंदेरी साड़ी उद्योग विश्व के नक्शे पर आया था, लेकिन अब इन साड़ियों का चलन न के बराबर रह गया है. अब इस प्रकार की साड़ियां सिर्फ आर्डर पर ही बनाई जाती हैं. इन्हें बनाने वाले कारीगर भी अब काफी कम हैं.
बुंदेली संस्कृति की वैश्विक पहचान बन चुकी है चंदेरी साड़ियां:
चंदेरी साड़ियां बुंदेली संस्कृति की इकलौती पहचान है. चंदेरी साड़ियां बनाने का हथकरघा उद्योग सैकड़ो वर्षो से चला आ रहा है। आज भी जीवित ऐसी संस्कृति जो लोगो को लोगो से जोड़ती है। इस कार्य में ज्यादा मुस्लिम कार्यरत हैं। बावजूद इसके ये उद्योग हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक है।
सदियों से काग़ज़ पर बनते आ रहे चंदेरी डिज़ाइनों को अब न सिर्फ़ डिजिटाइज़ कर दिया गया है बल्कि इंटरनेट के ज़रिए नए डिज़ाइन खोज कर अब अलग-अलग तरह की चंदेरी साड़ियां बनाई जा रही हैं।
एक हफ्ते में कभी दो साड़ी बन गई है कभी एक ही , मांग के ऊपर निर्धारित करता है। 5 से दस हजार एक हफ्ते में मिल जाता है।
सबसे मुख्य बात ये है कि हर घर में आप चंदेरी साड़ी बनाने का हथकरघा उद्योग पा जायेंगे। स्वाभाव से भी ये सभी मिलनसार और प्रेमी हैं।
चंदेरी कस्बे में अलग-अलग तबकों के तकरीबन 3500 परिवार रहते हैं जिनका गुजर-बसर चंदेरी कपड़े बना कर होता है। पिछले चार सालों में चंदेरी साड़ियों और कपड़ों की मांग में जबरदस्त तेजी आई है जो पहले कभी नहीं देखी गई। इसकी वजह से बुनकरों की आमदनी और कामकाजी हालात में काफी सुधार हुआ है।
यूनिडो ने चंदेरी के उत्पादों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार-प्रसार करने के लिए अपनी एक वेबसाइट भी तैयार की है. ग्रामीण उद्योग विभाग भी चंदेरी के उत्पादों की लोकप्रियता के मद्देनज़र दक्षिण-पूर्व एशिया में निर्यात की संभावना तलाश रहा है. क्षेत्रीय मांगों के अनुरूप चंदेरी के उत्पादों में बदलाव भी किया जा रहा है. यूनिडो ने इस दिशा में प्रयास करते हुए स्वयं सहायता समूहों के जरिए प्रतिवर्ष 15 नेटवर्क तैयार करने का निश्चय किया है. फेब इंडिया ने भी चंदेरी के बुनकरों को मदद करने के लिए हामी भरी है. चंदेरी टास्क फोर्स की बैठक में चंदेरी के उत्पादों की विशिष्ट पहचान कायम रखने के लिए ब्रांड पंजीयन के मुद्दे पर भी गंभीरता से विचार करने के बाद यूनिडो को यह दायित्व सौंपा गया है कि वह वियो ग्राफिकल इंडियन एक्ट के अंतर्गत चंदेरी उत्पादों के पंजीयन की संभावनाएं तलाश करे ।