आधुनिकता की चकाचौंध में कुम्हारी कला के द्वारा जीवन यापन करने वाले कुम्हार बिरादरी के व्यवसाय को ग्रहण लग चुका है जिससे इन की दशा दिन प्रतिदिन बद से बदतर होती चली जा रही है। शासन भी इनकी ओर ध्यान नहीं दे रहा है। यदि थोड़ा ध्यान प्रशासन इनके व्यवसाय की ओर दे दे तो इनका बीता हुआ कल वापस आ सकता है।

कुम्हारी कला के द्वारा मिट्टी के बर्तन बना कर के जीवन यापन करने वाले कुम्हार बिरादरी के व्यवसाय को ग्रहण लग चुका है। दीपावली के आगमन पर मिट्टी के कलात्मक बर्तनों दीपक बनाने का कार्य ये 6 माह पूर्व से ही शुरू कर देते थे। दीपावली पर्व पर इन्हें अच्छी खासी आमदनी हो जाती थी जिस पर घर के सारे खर्चों का दारोमदार निर्भर करता था परंतु अब इनकी इस कला को ग्रहण लग चुका है।

चायनीज सामानों ने ली मिट्टी के दीयों की जगह :

लोगों ने दीपावली पर घर को रोशन करने के लिए मिट्टी के दीपों के स्थान पर चाइना की कृत्रिम झालरों व अन्य साज सज्जा से संबंधित वस्तुओं का प्रयोग करना शुरू कर दिया है। शादी-विवाह के अवसर पर इनके द्वारा बनाए गए कुल्लड़ प्यालो का लोग प्रयोग करते थे। गर्मी के मौसम में मिट्टी के घड़े सुराही आदि को बना करके इन्हें अच्छी खासी आमदनी हो जाती थी लेकिन अब समय के बदलते दौर में न तो इन्हें मिट्टी ही मिल पाती है और न ही मिट्टी के बने बर्तनों को पकाने के लिए लकड़ियां ही मिल पाती है।

इसके संबंध में ग्राम कटका निवासी कुम्हारी कला के द्वारा जीवन यापन करने वाले धनीराम बताते हैं की भैया अब कुम्हारी कला के दिन लद चुके हैं। दीपावली के आगमन पर हम लोग 6 माह पूर्व से ही मिट्टी के दिए भुर्के फुलझड़ियां तथा अन्य वस्तुएं बनाते थे जिनकी काफी मांग होती थी। इस पर घर के सारे खर्चों का दारोमदार निर्भर करता था। अब कुम्हारी कला के दिन लद चुके हैं अब हम लोगों को कोई नहीं पूछता है।

समय बदलने से बदतर हुई स्थिति :

वहीं दिलासाराम बताते हैं कि हम लोग दीपावली के आगमन से 6 माह पूर्व से ही मिट्टी के कलात्मक बर्तनों को बनाना शुरू कर देते थे। दीपावली पर अच्छी खासी आमदनी हो जाती थी लेकिन जमाना अब बदल चुका है। न तो बर्तनों को बनाने के लिए मिट्टी ही मिल पाती है न ही पकाने के लिए लकड़ियां ही मिल पाती हैं। यदि सरकार हम लोगों की इस कला की ओर थोड़ा ध्यान दे दे तो बीता हुआ कल वापस आ सकता है।

वहीं आसाराम का कहना है कि शादी विवाह के अवसर पर हम लोगों के द्वारा बनाए गए मिट्टी के बर्तनों की काफी मांग होती थी जिस का स्थान थर्माकोल की प्लेटों व गिलासों ने ले लिया है। इसके अतिरिक्त दीपावली पर्व पर भी अच्छी-खासी आमदनी हो जाती थी जिससे पूरा साल खुशी खुशी बीत जाता था। अब हमारे इस व्यवसाय को ग्रहण लग चुका है।

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