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दिल्ली: शाम को जैसे ही चुनाव आयोग ने एक पत्र जारी कर अखिलेश को समाजवादी साइकिल की चाभी थमाई, लखनऊ समेत पूरे प्रदेश में अखिलेश समर्थकों के बीच ख़ुशी की लहर दौड़ गयी। चुनाव आयोग को दो विशेष मुद्दों पर ध्यान देना था, एक तो ये कि क्या समाजवादी पार्टी के दो गुटों में वास्तविक कलह है, दूसरा अगर है तो पार्टी पर अधिकार किस गुट का होना चाहिए।
जानें क्या हैं वो 4 कारण अगले पेज पर!
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चुनाव आयोग ने 1972 में सादिक़ अली और आयोग के बीच हुए कांग्रेस के बंटवारे को लेकर हुए केस को उदाहरण के तौर पर लिया। कुछ पुरानी केस स्टडीज और समाजवादी पार्टी के संविधान को मद्देनज़र रखते हुए चुनाव आयोग ने इन ख़ास बिंदुओं के आधार पर अखिलेश यादव को सपा का उत्तराधिकारी घोषित किया।
क्या हैं वो 4 मुद्दे:
- पार्टी के सभी विंग में अखिलेश यादव का एक तरफ़ा बहुमत बना सबसे बड़ा कारण। 228 में से 205 विधायक, 68 में से 56 MLC, 24 में से 15 सांसद, 46 में से 28 राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और 5371 में से 4400 राष्ट्रीय संवहन के सदस्य अखिलेश के साथ थे।
- चुनाव आयोग पैरा 15 पर कपिल सिब्बल के दिए तर्कों से सहमत था, अखिलेश के वकील सिब्बल ने तर्क दिया कि सपा में सीधा बिखराव है, उधर मुलायम खेमा यही कहता रहा कि पार्टी में किसी भी प्रकार का कोई बिखराव नहीं है।
- मुलायम खेमे ने तर्क दिया कि रामगोपाल निलंबित थे तो उन्हें विशेष अधिवेशन बुलाने का कोई अधिकार नहीं था, लेकिन आयोग ने सपा के संविधान में पाया कि ऐसे निलंबन के लिए 3 सदस्यों की कमिटी का गठन करना पड़ता है, जो मुलायम ने नहीं किया था।
- आयोग के बार-बार कहने पर भी सपा सुप्रीमो ने विधायक और सांसदों आदि का समर्थन पत्र पेश नहीं किया, वो बस यही कहते रहे कि अखिलेश यादव के समर्थन में जारी चिट्ठियां फ़र्ज़ी हैं।
आयोग को जहाँ मुलायम खेमे का एक तो वहीँ अखिलेश खेमे के चार तर्क भारी दिखे, और यही वजह बना कि अखिलेश यादव को निर्विवादित तौर पर सपा का नया बॉस घोषित कर दिया गया।
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