बेटे ने नहीं दिखाया होता तो शायद पुराने दर्द फिर से उभर कर सामने नहीं आते, 1965 हो या 1971 का युद्ध, 1947 से चली आ रही हमारी पालिसी अब नागरिकों के दिलों में भी घर करती जा रही है। ‘जूते खाओ, बर्दाश्त करो’, 7 दशक बीत जाने के बाद भी स्थिति में कुछ ख़ास बदलाव नहीं आया है। कैप्टन हैरी की बेटी की तस्वीर के साथ एक तख्ती देखी जिसपर लिखा था “पाकिस्तान ने मेरे पिताजी को नहीं मारा, युद्ध ने उन्हें मारा”. शब्दों के चयन से ही समझ में आ जाता है कि बिटिया को ‘शहीद’ क्या होता है किसी ने समझाया नहीं।
खैर 20 साल की बच्ची इस पूरे विवाद की जड़ नहीं हो सकती ये आप सभी जानते हैं, कहीं न कहीं इस विचारधारा को बल देने और प्रचारित करने की साजिश हमेशा से होती आयी है। भारत को भावनाओं और दरियादिली का सागर कह दिया जाए तो गलत नहीं होगा। हम बांग्लादेश जीते और उन्हें वापिस कर दिया, ठीक वैसे ही जैसे भगवान राम ने लंका जीत कर भी लंका वापिस कर दी थी। पर सवाल ये उठता है कि इतने सालों बाद भी हमें इस दरियादिली वाले स्वभाव से मिला क्या है?
खुद पर सवाल उठाने की आदत कोई नयी नहीं है, 1965 युद्ध के बाद जब हम कैंप वापिस लौटे थे तो कुछ लोगों ने हमसे भी सवाल किये थे, ‘आपने फायरिंग क्यों की?’, आजतक भारत उस स्वर्णिम इतिहास की व्याख्या करते वक़्त गर्वित महसूस करता है, पर कुछ थे जिन्हें तब भी आपत्ति थी। ठीक वैसे ही जैसे हाल में ही लोगों ने सेना से सर्जिकल स्ट्राइक के सुबूत मांग लिए थे। बेटी गुरमेहर अभी सवाल करने के लिहाज़ से बहुत छोटी है, पर मैं आज की पीढ़ी के युवाओं से कुछ सवाल करना चाहूंगा, जो मेरे मन में हमेशा उठते आये हैं।
- अगर राष्ट्रविरोधी नारों का विरोध करने वाले ‘गुंडे’ हैं, तो क्या उन्हें मारने वाले फौजी ‘आतंकी’ हैं?
- सेना से रहम की उम्मीद करने वाले लोग ही ‘बन्दूक के दम पर आज़ादी’ लेने की बात करते हैं, किसी ने सवाल उठाया?
- अगर देश नहीं युद्ध मौत का कारण है तो मैं पूछता हूँ इसकी शुरुआत कौन करता है?
- आतंकियों को पनाह देने वाले लोगों की ‘आज़ादी’ कहाँ तक तर्कसंगत है?
- सैड़कों ऐसे शहीद परिवार हैं जो खुलेआम इन देशविरोधी गतिविधियों के खिलाफ है, उनके साथ शायद एक या दो हैं, पर मीडिया उन सैकड़ों को छोड़ कर एक या दो को ही क्यों हीरो बनाने के फिराक में है?
कहीं ये कोई साजिश तो नहीं है? इतिहास पढ़ा हो तो आपको मालूम होगा, लाल बहादुर शास्त्री से लेकर इंदिरा गाँधी तक और इंदिरा गाँधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक, भारतीय फौज फ्रंट-फुट पर तभी आती है जब देश की जनता के साथ सरकार भी खुल कर उनके साथ आये। गुरमेहर बिटिया के पिता शहीद कैप्टन मंदीप को मैं व्यक्तिगत तौर पर तो नहीं जानता पर कहानियां बहुत सुन रखी हैं। कुपवाड़ा में अपने कैम्प को बचाने के लिए खुद को समर्पित कर दिया, क्या आज के युवा ये चाहेंगे कि वो वहां पर किताबी ज्ञान देते और शांति की बातें कर आतंकियों को गौतम बुद्ध बना देते?
देशविरोधी नारे लगाने वालों और आतंकवादियों में एक बात कॉमन है, दोनों को नहीं पता होता वो क्या कर रहे हैं, समाज का एक वर्ग उनका पूरी तरह से ‘माइंड वाश’ कर चुका होता है। पर अब जब यह विचारधारा शहीद के घर के दरवाजे तक पहुँच गयी है तो आवाज़ उठाना मजबूरी हो जाती है। मैं नहीं जानता सोशल मीडिया के जमाने में मेरे इस पत्र का युवा वर्ग पर क्या असर पड़ता है, पर अगर समझो तो एक बात जरूर कहूंगा “हर घर में कमियां होती हैं, पर जब उन कमियों की वजह से हम घर तोड़ने पर अमादा हो जाएँ, तो कहीं ना कहीं कमी हमारे ही अंदर है।
जय हिन्द, जय भारत!
कर्नल विक्रम