इलेक्शन एक्सप्रेस पूर्वांचल के प्लेटफॉर्म पर पहुँच चुकी है. प्लेटफॉर्म पर मौजूद मतदाता अपने-अपने पसंदीदा नेताओं के साथ नारेबाजी करते हुए स्टेशन से बाहर आ रहे हैं. लेकिन स्टेशन के बाहर आते ही दिल्ली और लखनऊ वाले नेताओं का दम घुटने लगता है. खम्बे पर उलझे बिजली के तारों की बात हो या स्टेशन के बाहर बेतरतीब खड़ी गाड़ियां या फिर गड्ढे से सड़क, पूर्वांचल इसका आदि रहा है.
बुनियादी सुविधाओं की बाट जोह रहा पूर्वांचल:
पूर्वांचल के इलाकों को जो सुविधाएँ मिलनी चाहिए थी वो उससे महरूम रह गए, जबकि देश की राजनीति को एक से बढ़कर एक दिग्गज इस इलाके में दिए लेकिन उन्हीं इलाकों में सड़क, बिजली, पीने का साफ़ पानी और ढंग की सड़कों के लिए आज भी लोग तरस रहे हैं. तो वहीँ शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी इस इलाके में खास प्रगति नहीं हुई है. नक़ल माफियाओं ने प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को तार-तार कर दिया। अच्छे डॉक्टरों और अच्छी तकनीक के अभाव में अस्पताल भी जर्जर हो चुके हैं.
प्रदेश की कानून व्यवस्था बढ़ते अपराध के आगे दम तोड़ती नजर आती है. भ्रष्टाचार के बीज इस कदर अंदर तक जा चुके हैं कि बिना पैसे दिए कोई निवास प्रमाण पत्र तक नहीं बनता है.
राज्य को 11 मुख्यमंत्री देने वाला यह इलका आज भी पिछड़ा हुआ है. पूर्वांचल आज भी उन बुनियादी सुविधाओं की वाट जोह रहा है जो इस इलाके में बहुत पहले पहुंच जानी चहिए थी.
बेरोजगारी की मार:
सबसे ज्यादा जनसंख्या घनत्व वाला ये इलाका गरीबी और बेरोजगारी का दंश झेल रहा है. पूर्वांचल के लोगों से शायद प्रकृति का भी 36 का आकंड़ा है, तभी तो कभी सूखे तो कभी बाढ़ ने लोगों को समय-समय पर गहरे जख्म देने का काम किया है. रही-सही कसर सरकारों की उदासीनता पूरी करती रही और इस क्षेत्र के किसानों को फसलों का नुकसान झेलना पड़ा और बैंक से लिए गए कर्ज के नीचे इनकी जिंदगी दबती चली गई. काफी हद तक मध्यम वर्ग के युवाओं को नौकरी नहीं मिल पायी और बेरोजगरी बदस्तूर बढ़ती चली गई.
बाढ़ के प्रकोप से कई जिले हुए प्रभावित:
पूर्वांचल का एक बड़ा भाग बाढ़ की चपेट में रहता है. बाढ़ के बाद कटान में लाखों लोगों ने अपना घर-बार गँवा दिया और सालों तक सड़कों पर खुले आसमान के नीचे जिंदगी गुजारने को मजबूर रहे. कुशीनगर, गोंडा, गाजीपुर बलिया, आजमगढ़, देवरिया, और बहराइच में 6,000 से ज्यादा गांव बाढ़ और नदी की कटान की वजह से बर्बाद हो चुके हैं. अपना सबकुछ खोकर भी सरकार से उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शायद कभी न कभी सरकार को उनकी सुध लेने का वक्त मिल जायेगा। जमीन-जायदाद से महरूम हो चुके लाखों लोगों को बाढ़ ने खानाबदोश बना दिया लेकिन सरकारी कागजों में इनको मुआवजे के साथ जमीन आदि सुविधाएँ दे दी गई जो वास्तविकता के धरातल पर कहीं नजर नहीं आती है.
लघु उद्योगों के खात्मे ने बढ़ाई बेरोजगारी:
पूर्वांचल में कारखानों की संख्या और उनमें काम करने वाले मजदूरों की संख्या देख आप समझ सकते हैं कि बेरोजगारी किस प्रकार अपना पांव पसार चुकी है.
अन्य क्षेत्रों की तूलना में पूर्वांचल में कुछ ज्यादा ही लघु उद्योगों ने दम तोड़ा। ‘पूर्वांचल का मैनचेस्टर’ कहा जाने वाला मऊ भी इसी की हालत बयां कर रहा है. सिल्क साड़ियों के लिए मशहूर मऊ हो या गुलाबों की नगरी कहा जाने वाला बलिया का सिकंदरपुर या फिर आजमगढ़, मिर्जापुर और गाजीपुर की बदहाली, सब एक ही पटरी पर खड़े किसी विकास से लदे स्पेशल ट्रेन का इंतजार कर रहे हैं.
देश के प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी का हाल भी कुछ अलग नहीं है. इस इलाके में पिछले दस साल में औद्योगिक क्षेत्रों की 60 छोटी-बड़ी इकाइयां बंद हो चुकी हैं. बलिया के रसड़ा में चीनी मिल को सरकार ने 2013 में बंद कर दिया था. परदहा में देश की सबसे बड़ी कताई मिल बंद पड़ी है. यहाँ के धागे विदेशों तक जाते थे लेकिन 10 साल से बंद पड़ी इस मिल ने कई हजार परिवारों का निवाला छीन लिया। यहीं पर स्वदेशी कॉटन मिल भी है जहाँ की दीवारों पर चील-कौवे बैठा करते हैं.
आकड़ों के अनुसार अबतक बलिया में 25, गोरखपुर में 80, भदोही में 75, चंदौली में 60 और मिर्जापुर में 65 छोटे-बड़े उद्योगों ने दम तोड़ दिया. यहाँ के लोगों की रोजी-रोटी का जरिया रहे ये उद्योग अब बंद हो गए और इन्हीं कारणों से इन इलाकों में पलायन भी बड़ी मात्रा में हुआ. परिवार का भरण-पोषण करने के लिए कुछ ना कुछ तो करना ही था और इनमें से कई ने कम पैसे में ही सही थोड़ी-बहुत मजदूरी कर जैसे-तैसा अपना दिन काटना शुरू किया। कुछ ने अन्य राज्यों का रुख किया और आज अपने गाँव-घर में ये लोग किसी मेहमान की तरह आते-जाते हैं.