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Review: हकलाती आवाज से हक मांगने की फिल्म है Indu Sarkar.

‘चैलेंज से नहीं चाबुक से चलती हैं सरकारें’ शायद तभी 25 जून 1975 से लेकर 21 मार्च 1977 तक चाबुक के दम पर देश चलाने का जोखिम तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने उठाया था. ये वो वक्त था जिसकी याद हर देशवासी के जेहन में है. कहते हैं देश ने उन 21 महीनों में जो यातनाएं झेलीं, वो भारत के इतिहास में आजादी से पूर्व अग्रेंजी हुकुमत में ही झेलीं थी. इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री रहते कांग्रेस ने जो निर्णय लिया था, वो आज भी कांग्रेस के लिए गले की हड्डी बना हुआ है. लेकिन इस विवादित दौर को परदे (indu sarkar) पर उतारने की कोशिश किसी ने नहीं की थी.

सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है:

नसबंदी से शुरू होती फिल्म प्रेसबंदी, अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबन्दी और न जाने क्या-क्या समेटे है. आपातकाल के दिनों में अत्याचार और सरकार की दमनकारी नीतियों की झलक लिए ये मूवी थोड़ी सी स्लो शुरू होती है लेकिन धीरे-धीरे फिल्म अपने असली रूप में उतरती है. पंच लाइन की बात करें तो ‘पुलिस की एक गोली ने मेरे 6 फुट के बेटे को 6 इंच की तस्वीर बना दी, ‘चैलेंज से नहीं सरकारें चाबुक से चलती हैं, या फिर ‘इमरजेंसी में इमोशन नहीं मेरे आर्डर चलते हैं’ फिल्म को बांधे रखने की कोशिश करती हैं.

दो और दो का मलतब, आपको जितना चाहिए उतना होता है. ये दर्शाता है कि राजनीति का रूप कैसा होता है. किशोर कुमार के गानों पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है. वहीँ सरकार हर प्रकार से उठने वाली आवाज को दबाने की कोशिश में रहती है. मीडिया के नाम पर कुछ नही होता है. अँधेरे में छिप कर प्रिंटिंग मशीनों के सहारे सरकार के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की जाती है. पत्रों के जरिये ये सन्देश देने की कोशिश की जाती है कि सरकार की नीतियों के खिलाफ जनता आवाज उठा रही है, सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है.

इंदु सरकार: हकलाती आवाज ने सरकार को दी चुनौती:

इंदु सरकार के पति नवीन सरकार एक सरकारी मुलाजिम हैं, ओहदा बड़ा और पहुँच बड़ी. वहीँ इंदु एक अनाथ लड़की है जिसका हाथ नवीन ने थामा और इस प्रकार इंदु अब इंदु सरकार बन गई. इंदु सरकार का सपना है एक अच्छी पत्नी बनने का वहीँ नवीन के सपने बिल्कुल जुदा हैं. नवीन सत्ता के दम पर अपना मुकाम हासिल करना चाहते हैं, बंगला-गाड़ी, ढेर सारा पैसा, ये नवीन का सपना है जैसा कि आज के दौर में है. इमरजेंसी के काले साये में नवीन अपनी दुनिया को रंगीन बनाने की चाहत में डूबे हैं. लेकिन उनकी इस चाहत को पूरा करने की कोशिश इंदु को एक विद्रोही( क्रांतिकारी) बना देती है.

तुर्कमान गेट पर रहने वाले सैकड़ों परिवार को बेघर करने की मुहीम चलायी जाती है लेकिन उन जलते घरों की एक चिंगारी नवीन के घर को भी चपेट में ले लेती है. सरकार की दमनकारी नीति के कारण कई घर उजड़ जाते हैं, कई बच्चों के माँ-बाप मार दिए जाते हैं, कई माँ की गोद सुनी हो जाती है. ऐसे ही दो बच्चों के माँ-बाप को ढूंढने में इंदु अपना पूरा वक्त गुजारती है. लेकिन नवीन को ये पसंद नहीं है, नवीन सरकार अपनी ‘सरकार’ के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबा देने वालों में से हैं. नवीन के इसी रवैये के कारण इंदु घर छोड़कर चली जाती है लेकिन नवीन ये सहन नहीं पाते हैं. नवीन उन दोनों बच्चों को इंदु से अलग कर देते हैं ताकि इंदु वापस आ जाये. लेकिन इंदु तबतक सच से रूबरू हो चुकी होती है.

इंदु के किरदार को बखूबी जिया है 

इंदु ये जान चुकी होती है कि सरकार की दमनकारी नीति का शिकार जनता हो रही है जबकि बाहर की दुनिया को कुछ नहीं मालूम कि यहाँ क्या हो रहा है. ऐसे में हिम्मत इंडिया के संपर्क में आकर इंदु सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करती है. इंदु वैसा ही कुछ करती है जैसा भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने किया था. विदेशी प्रतिनिधिमंडल दल के सदस्यों के सामने इंदु ‘इमरजेंसी डाउन-डाउन’ के नारे लगाती है जिसकी गूंज से तत्कालीन कांग्रेस सरकार की नींव हिल जाती है. भारत से बाहर कई देशों में इमरजेंसी के बाद पनपे हालात का सच सामने आता है और सरकार की किरकिरी होती है. ऐसे में सरकार उन क्रांतिकारियों को हर हाल में पकड़कर उन्हें ख़त्म कर देना चाहती है, उनके मुखिया नानाजी के अलावा बाकी सभी पकड़े जाते हैं, इंदु को पुलिस डंडे के जोर पर ये कुबूल करवाना चाहती है ये लोग नक्सली हैं, लेकिन इंदु के इरादों को पुलिस के डंडों की परवाह नहीं होती. इंदु से वकील कहते हैं कि सरकार उन्हें नक्सल मानती है. इंदु का जवाब होता है, ‘मैं उन्हें सरकार नहीं मानती’

कोर्ट में इंदु खुलकर बोलती है, सरकार के अत्याचारों के खिलाफ अपनी भड़ास निकालती है, सरकार के जुल्मों और उनके द्वारा लगाए प्रतिबंधों को गिनाती है. इंदु अपने हक़ की लड़ाई लड़ती है और उस सरकार के खिलाफ लड़ती है जिन्होंने आजादी के बाद से पहली बार देश की जनता पर अत्याचारों की हद पार कर रखी है. इंदु को मिसा का डर नहीं सताता है. आखिरकार ये लड़ाई रंग लाती है और एक दिन सरकार को इमर्जेन्सी ख़त्म करनी पड़ती है.

फिल्म क्यों देखें या ना देखें: 

ये कहना गलत होगा कि फिल्म कितनी अच्छी है या बेकार है. राजनीतिक घटनाक्रम पर बनी फिल्म कभी भी सभी वर्गों को संतुष्ट नहीं पाती है. एक्टिंग की बात करें तो कीर्ति कुल्हारी ने अपने पात्र के साथ पूरा न्याय किया है. पिंक में उन्हें वो प्रसिद्धि नहीं मिली लेकिन इंदु ने सरकार को झकझोरने का काम बखूबी किया। अनुपम खेर अपने चिरपरिचित अंदाज में दिखाई दिए. वहीँ नील नीतिन मुकेश थोड़े असहज जरूर लगे. हालाँकि उन्होंने पात्र को जीने की पूरी कोशिश की है. आपातकाल जैसी घटना के लिए कहानी का होना न होना मायने नहीं रखता है, मायने ये रखता है कि आपने उस दौरान की घटनाओं को कितनी जगह दी. यहाँ मधुर भंडारकर जैसे फिल्म निर्माता से अपेक्षा की जाती थी कि कुछ और इसमें जोड़ें. इमरजेंसी के दिनों पर बनी फिल्म का रिलीज़ से पहले ही विरोध समझ से परे था. फिल्म को फिल्म की तरह देखने की कोशिश की जाये तो 2 घंटे 20 मिनट उबाऊ नहीं लगेंगे.

रेटिंग (3.5 *)

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