शहर के बच्चों में अस्थामा बढ़ा रहा वायु मंडल में बढ़ता प्रदूषण
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बेंगलुरु। बेंगलुरु निवासी गंगाधर (उन्होंने अपनी पहचान के छुपाने के लिए सिर्फ अपने नाम का पहला वाक्य दिया ) ने बताया कि वह अपने परिवार के साथ दो साल के लिए अमेरिका के इंडियानापोलिस से बेंगलुरु आ गए।
यहां रहते हुए एक साल पहले, उनके 13 वर्षीय बेटा लगातार सांस की समस्या से परेशान था।
जब उसे डाक्टर को दिखाया तो पता चला कि बच्चे को अस्थमा हो गया। इलाज के लिए डाक्टर ने बेटे को इनहेलर और स्टेरॉयड दिया।
इसके बाद भी बेटे की खांसी खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी।
समय के साथ उनके बेटे की समस्या गंभीर होती जा रही थी।गंगाधर ने बताया कि बेंगलुरु आने से पहले तक उनके बेटे को किसी तरह की सांस की दिक्कत नहीं थी।
उनका बेटा फुटबाल का खिलाड़ी है, उसे अपने दोस्तों के साथ फुटबाल खेलना बहुत पसंद था।
सांस की समस्या उसके लिए बहुत गंभीर हो गयी थी। अब एक साल से उनका बेटा फुटबाल भी नहीं खेल पा रहा है।
गंगाधर ने बताया कि उनके बेटे को घर से कनपकुपर स्थिति स्कूल तक जाने के लिए 25 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है।
यहीं सफर उसके बच्चे के लिए अस्थमा की वजह बन गया है, क्योंकि इस दौरान बेटे को भारी प्रदूषण के बीच ही सफर करना पड़ रहा है।
गंगाधर को चिंता अपनी छह साल की बेटी को लेकर है, क्योंकि वह भी इसी रास्ते से स्कूल जाएगी।
इस वाकये से हम समझ सकते हैं कि शहर में बढ़ता प्रदूषण किस तरह से बच्चों को अपनी चपेट में ले रहा है।
कई अध्ययन से पता चला है कि शहर की जहरीली हवा बेहद खतरनाक हो गयी है।
खासतौर पर बच्चे के लिए यह हवा बीमारियों की वजह बन रही है।
खासतौर पर बच्चों में अस्थमा की समस्या के लिए प्रदूषण जिम्मेदार है।
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कंटेम्परेरी पीडियाट्रिक्स में मार्च 2018 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार
धूम्रपान बच्चों में अस्थमा के तीन मुख्य कारणों में एक है।
बेंगलुरु के इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ चाइल्ड हेल्थ के सघन देखभाल यूनिट में 2015 में 100 बच्चों पर किए गए शोध के बाद यह नतीजा सामने आया है।
नवंबर 2018 में इसी जर्नल में प्रकाशित एक अन्य लेख में बताया गया कि वाहनों के धुएं, ईंधन जलाने और कृषि अवशेष को ईंधन की तरह इस्तेमाल करना भी अस्थमा की की बड़ी वजह बन सकता है।
बेंगलुरु के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ एच परमीश ने बताया कि पीएम 2.5 और पीएम 10 के कण सांस के माध्यम से शरीर में आसानी से प्रवेश जाते हैं। जो अस्थमा की वजह बन जाते हैं।
अस्थमा के मरीज को सांस लेने में दिक्कत आती है।
क्योंकि सांस लेने वाली पाइप में सूजन आ जाती है।
इससे सांस लेते वक्त घर्रघर्र की आवाज आती है।
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी की वैज्ञानिक डॉ प्रतिमा सिंह ने बताया कि पीएम 2.5 और पीएम 10 अपने बेहद सूक्ष्म आसार की वजह से सांस लेते वक्त ऑक्सीजन के साथ हमारे शरीर में आसानी से पहुंच जाते हैं।
सांस के रास्ते यह कण सीधे गहराई तक फेफड़ों में पहुंच जाते हैं।
लगातार सांस के रास्ते यदि यह फेफड़ों में प्रवेश करते रहते है तो सूजन के साथ साथ कई स्वास्थ्य संबंधी दिक्कत पैदा कर सकते हैं।
बच्चों के फेफड़े क्योंकि ज्यादा संवेदनशील होते हैं, इसलिए उन्हें प्रदूषित हवा में सांस लेने से अस्थमा की समस्या बहुत जल्दी होने की संभावना बनी रहती है।
क्योंकि कम उम्र में फेफड़े पूरी तरह से मजबूत और विकसित नहीं होते हैं।
प्रदूषित हवा में लगातार रह रहे बच्चे जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं, उनके फेफड़ों की दिक्कत बढ़ती चली जाती है।
गर्भस्थ शिशु पर भी प्रदूषण प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
डॉ परमीश ने बताया कि प्रदूषण न सिर्फ वहां रहने वाले बच्चों को ही अपनी चपेट में ले रह है, बल्कि गर्भस्थ शिशु भी इसकी चपेट में आ रहे हैं।
मां के गर्भ में पल रहे बच्चे को कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी दिक्कत आ सकती है।
क्योंकि मां जिस हवा में सांस ले रही है, वह प्रदूषित है, इस तरह से मां को पूरी ऑक्सीजन नहीं मिल रही है।
जाहिर है, गर्भस्थ शिशु तक भी ऑक्सीजन का कम प्रवाह हो रहा है।
क्योंकि गर्भस्थ शिशु नाल से ही अपना पोषण ले रहा होता है। इस तरह से जब मां ही कम ऑक्सीजन ले पा रही है तो बच्चे शिशु तक भी ऑक्सीजन कम ही जाएगी।
उन्होंने कहा कि प्रदूषित वातावरण में रहने वाली 30 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं को समय से पहले डिलीवरी हो जाती है।
प्रदूषित वातावरण मे रह रहे बच्चों के स्वास्थ्य की और नियमित तौर पर ध्यान देने की जरूरत है।
उनके इलाज और दवा का उचित प्रबंध होना चाहिए। क्योंकि उनके अस्थमा की चपेट में आने की संभावना ज्यादा होती है।
डॉ परमीश ने कहा कि उनके पास जो बच्चे इलाज के लिए आ रहे हैं, इसमें अस्थमा की शिकायत के मरीजों की संख्या बढ़ रही है।
बेंगलुरु में प्रदूषण की वजह से तेजी से बढ़ रहे अस्थमा पर 2018 में उनका शोध पत्र करंट साइंस में प्रकाशित भी हुआ था।इस अध्ययन में पाया गया कि शहर में 1979 में लगभग 9% बच्चे ही अस्थमा की चपेट में आते थे,
2009 में यह आंकड़ा बढ़ कर 25.5% हो गया।
1994 में 20% से बढ़कर 2009 में 72.5% तक हो गया है। इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि जैसे जैसे शहर में प्रदूषण बढ़ रहा है, बच्चों में अस्थमा की समस्या भी उसी तेजी से बढ़ रही है।
बढ़ता प्रदूषण कितना खतरनाक हो गया है, इसका अंदाजा एक अन्य शोध से लगाया जा सकता है।
इसमें बताय गया कि बेंगलुरु में सांस के रोगियों की संख्या देश में सबसे ज्यादा थी यह लगभग 80 प्रतिशत जबकि राष्ट्रीय वृद्धि (62%) और अन्य महानगरीय शहर जैसे मुंबई (64%) और दिल्ली (50%)।
ग्रीनपीस इंडिया की 2015-16 में कर्नाटक के शहरों में वायु प्रदूषण के आंकड़ों का विश्लेषण किया। इससे पता चला कि बेंगलुरु कर्नाटक का सबसे प्रदूषित शहर है।
यह रिपोर्ट 2018 में प्रकाशित की गयी।
दलांसेटप्लेनटरी हेल्थ जर्नल में 2019 मेंप्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया कि शहर में वाहनों के के प्रदूषण से अस्थमा तेजी से फैल रहा है।
शोध में पाया गया कि वाहनों के धुएं में शामिल नाइट्रोजन डाइऑक्साइड सीधे तौर पर बच्चों को अपनी चपेट में ले रहा है और वह अस्थमा के मरीज हो रहे हैं।
भारत में हर साल बच्चों में अस्थमा के 3.5 लाख नए मामले सामने आ रहे हैं।