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कोविड -19 के संक्रमण में जानलेवा साबित हो सकता है बढ़ता प्रदूषण

कपिल काजल द्वारा

बेंगलुरु, कर्नाटक:

पूरा विश्व कोविड -19 महामारी से जूझ रहा है। संक्रमण में बढ़ता प्रदूषण जानलेवा साबित हो सकता है। क्योंकि प्रदूषण की वजह से पहले ही फेफड़ों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है, ऐसे में यदि कोविड -19 का संक्रमण हो जाता है तो मरीज के बचने के चांस काफी कम हो जाते हैं। विशेषज्ञ भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि जो व्यक्ति वायु प्रदूषण के संपर्क में लगातार रह रहा है, उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता काफी कम हो जाती है। इस तरह से कोविड -19 के संक्रमण की चपेट में आने का जोखिम ऐसे व्यक्तियों का काफी ज्यादा रहता है।

यूं भी जो लोग प्रदूषण के संपर्क में रहते हैं, उन्हें सांस समेत कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ता है। फ़ाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल के गवर्निंग काउंसिल के सदस्य डॉ येलापा रेड्डी ने बताया कि रोग प्रतिरोधक प्रणाली हमारे शरीर को रोगों से बचाती है। यदि बाहर से कोई संक्रमण शरीर में जाता है तो उसे खत्म करती है। इस तरह से हम कई तरह की बीमारियों से बचे रहते हैं। लेकिन प्रदूषण की वजह से हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। ऐसे लोगों को न सिर्फ कई तरह की अन्य बीमारी अपनी चपेट में आसानी से ले लेती है, बल्कि कोविड जैसा संक्रमण भी उन पर ज्यादा तेजी से हमला कर सकते है।

फिट इंडिया रिपोर्ट 2020 के अनुसार, 20.8% लोग साल में तीन बार से अधिक बीमार पड़ गए, इसका सीधा मतलब है कि उनके शरीर की प्रतिरक्षा क्षमता कम है। बेंगलुरु में तो स्थिति और भी खराब है, यहां

22% लोग साल में तीन बार से अधिक बीमार पड़ गए। इसका सीधा सा मतलब यह है कि यहां के लोग का रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो गयी है।

फिट इंडिया रिपोर्ट में शहर-वार आंकड़ों की तुलना की, इसमें पाया कि

जिन मेट्रो शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर ज्यादा है, वहां रहने वाले लोगों की प्रतिरक्षा कम है। इस सर्वे में यह बात निकल कर सामने आयी कि कोलकाता के हालात सबसे खराब है। यहां 25% लोगों साल में तीन या इससे अधिक बार बीमार पड़े हैं। जबकि भुवनेश्वर, पटना, चंडीगढ़, लखनऊ, बेंगलुरु, दिल्ली,

मुंबई और पुणे आदि का नंबर इसके बाद आता है।

साल 2003 में जब सार्स नाम की का संक्रमण आया था, तब एक अध्ययन किया गया था। इसमे पाया गया था कि इस संक्रमण से 84 प्रतिशत मौतों का जोखिम उन क्षेत्रों में हुई जहां प्रदूषण ज्यादा था। जबकि मध्यम वायु प्रदूषण के इलाकों में सार्स से मौत का अंदेशा अपेक्षाकृत कम थ।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कहा कि कोविड -19 नाम का वायरस भी 2003 में सक्रिय हुए सार्स वायरस जैसा ही है। डब्ल्यूएचओ ने कहा कि कोविड-19 रिकवरी के लिए शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली खासी महत्वपूर्ण है।

सार्स और कोविड -19 से भी ज्यादा मौतें मेट्रो या उन जगह पर ज्यादा हुई, जहां प्रदूषण का स्तर ज्यादा है। इससे भी साबित होता है कि देश के मेट्रो शहरों में प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है।

डॉ. रेड्डी ने बताया कि इसमें कोई दो राय है ही नहीं कि वायु प्रदूषण से कोविड -19 के संक्रमण होने पर मौत का खतरा बढ़ जाता है।

एक अध्ययन के अनुसार, वायु प्रदूषण में रहने वाले बच्चों के जीन में बदलाव आ जाता है। (जीन आनुवांशिकता की मूलभूत शारीरिक इकाई है। यानि इसी में हमारी आनुवांशिक विशेषताओं की जानकारी होती है जैसे हमारे बालों का रंग कैसा होगा, आंखों का रंग क्या होगा या हमें कौन सी बीमारियां हो सकती हैं। और यह जानकारी, कोशिकाओं के केन्द्र में मौजूद जिस तत्व में रहती है उसे डी एन ए कहते हैं। जब किसी जीन के डीएनए में कोई स्थाई परिवर्तन होता है तो उसे म्यूटेशन याउत्परिवर्तन कहा जाता है। यह कोशिकाओं के विभाजन के समय किसी दोष के कारण पराबैंगनी विकिरण की वजह से रासायनिक तत्व या वायरस और प्रदूषण से भी हो सकता है)

इससे बच्चों में अस्थमा की बीमारी होने का अंदेशा बढ़ जाता है।। शोधकर्ताओं ने पाया

वायु प्रदूषण बढ़ने से शहरी की प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर पड़ जाती है। इसकी वजह यह है कि प्रदूषण शरीर की टी कोशिकाओं को दबा देता है। इनके दबते ही इनके काम करने की क्षमता प्रभावित होती है। जब शरीर की रक्षा करने वाले वाली प्रणाली कमजोर पड़ जाती है तो अस्थमा का खतरा बढ़ जाता है। इसका सीधा असर फेफड़ों के काम करने की क्षमता पर पड़ता है।

चूहों में किए गए एक अध्ययन में बताया गया कि प्रदूषण की वजह से शरीर के अंदर कई सारे बदलाव होते हैं। इसके चलते शरीर में ऐसे रसायन बन जाते हैं जो अंदर सूजन की वजह बन जाते हैं। इससे दिल की बीमारी का जोखिम बढ़ जाता है। इसी तरह से

मधुमेह और मोटापा जैसी दिक्कत हो सकती है। स्वास्थ्य विशेषज्ञ, डॉ सिल्विया करापागम का कहना है कि जब भी सांस के माध्यम से शरीर में प्रदूषण के कण जाते हैं तो शरीर की रक्षा प्रणाली इसे दूर करने की कोशिश करती है। लेकिन जब सांस के साथ प्रदूषित कण शरीर के अंदर प्रवेश करते रहते हैं तो सांस की बीमारी होना शुरू हो जाती है। इससे लोग बीमार पड़ जाते हैं। उन्हें इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है। इसके साथ ही मौत का आंकड़ा भी बढ़ता जाता है।

(लेखक बेंगलुरू के स्वतंत्र पत्रकार है वह अखिल भारतीय ग्रासरुट रिपोर्टर्स नेटवर्क 101Reporters.com के सदस्य हैं। )

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