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दो सालों के भीतर बेंगलुरु में प्रदूषण का स्तर दस गुणा बढ़ गया

कपिल काजल
बेंगलुरु, कर्नाटक:
बेंगलुरु के बढ़ता  वायु प्रदूषण एक विवादस्पद बहस का विषय है। हर कोई खुद को सही साबित करने की कोशिश में जुटा है। अब
कर्नाटक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (केएसपीसीबी) को ही लीजिये। बोर्ड का दावा है कि प्रदूषण के स्तर में कमी आयी है। लेकिन पर्यावरणविदों और कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह दावा सही नहीं है।
केएसपीसीबी के मुख्य वैज्ञानिक अधिकारी डॉ. एच लोकेश्वरी ने बताया कि बेंगलुरु में   वायु प्रदूषण का स्तर पांच वर्षों से लगातार कम हो रहा है। उन्होंने यह भी दावा किया कि
2014 से 2018 तक वार्षिक औसत वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) मूल्य
‘मध्यम’ से ‘संतोषजनक’ में तब्दील हो गया है।
उन्होंने यह भी बताया कि  2014 की तुलना में  2018 में हवा में पीएम 10 (हवा में सुक्ष्म कणों की मात्रा) औसतन  28प्रतिशत  की कमी आयी है। इसी तरह  2015 से 2017 के बीच  पीएम  2.5 में   29 प्रतिशत की  कमी देखी गई है। अपने दावे को पुष्ट करने के लिए उन्होंने बोर्ड के  निगरानी स्टेशनों से वायु प्रदूषण के आंकड़े का हवाला देते हुए कहा कि यह भी वायु प्रदूषण में कमी होती दिखा रहे हैं।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि हवा में

पीएम 10 और पीएम 2.5 की मात्रा यदि एक सीमा से ज्यादा बढ़ जाती है तो इससे सांस की बीमारियों के साथ साथ  अस्थमा और फेफड़े की बीमारियों,
संक्रमण और यहां तक कि कई बार तो कैंसर तक हो जाता है।

विशेषज्ञों का तर्क:  दावों पर यकीन नहीं होता
बोर्ड के दावों के विपरीत विशेषज्ञों ने कहा कि आंकडे़ भ्रम पैदा करने वाले हैं। हकीकत कुछ अलग है। इंडियन इंस्टीट्यूट साइंस के सेंटर फॉर इकॉलॉजी के प्रोफेसर
डॉ टीवी रामचंद्र ने बताया कि  केएसपीसीबी वायु प्रदूषण को जो आंकड़ा लेता है, वह औसतन आधारित होता है। इससे सही स्थिति का पता नहीं चलता। खासतौर पर बेंगलुरु जैसे बड़े शहर में औसतन आधार पर डाटा जुटा कर वायु प्रदूषण के स्तर का आंकलन करना गलत है।
अब यदि मैजेस्टिक  एरिया प्रदूषित है, और  जयनगर या लालबाग में वायु प्रदूषण कम है। अब यदि हम औसतन आधार पर प्रदूषण का आंकलन करते हैं तो कैसे सही स्थिति सामने आ सकती है। एक साफ सुथरे क्षेत्र के प्रदूषण के आंकड़े को प्रदूषित क्षेत्र के आंकड़ों में जोड़ कर यदि औसतन निकाला जाए तो कैसे सही तस्वीर सामने आ सकती है।
उन्होंने बताया  केएसपीसीबी प्रदूषण के मामले में
जनता को गुमराह करता है। उनके पास तो आधे से ज्यादा प्रदूषण के आंकड़े तक नहीं है।
फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल के गवर्निंग काउंसिल के सदस्य डॉक्टर  येलापा रेड्डी ने  तो यहां तक बोल दिया कि उन्हें तो सरकारी आंकड़ों पर विश्वास ही  नहीं होता। उन्होंने कहा कि बोर्ड कैसे काम कर रहा है? इसका अंदाजा इसी से लग सकता है कि इनके  75 प्रतिशत  निगरानी स्टेशन या तो  काम ही नहीं कर रहे हैं, या बस थोड़ा बहुत काम कर रहे हैं।  जो बाकी के  स्टेशन बचे हैं, वह भी कोई सटीक आंकड़ा नहीं दे रहे हैं। वह भी कुछ दिनों का ी ही आंकड़ा देते हैं। इस तरह का डाटा बहुत ही भ्रामक होता है। इससे स्थिति का सही सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। उन्होंने निगरानी स्टेशन की जगह पर भी सवाल उठाया है। उन्होंने कहा कि इस तरह के स्टेशन ऐसी जगह पर बना दिये जाते हैं,जहां चारों ओर हरियाली हो। केएसपीसीबी के मुख्य कार्यालय एमजी रोड पर  कोई निगरानी स्टेशन नहीं है।
केएसपीसीबी का मुख्य कार्यालय एमजी रोड पर है।

उन्होंने यह भी दावा किया कि निगरानी स्टेशन स्थापित करते वक्त उंचाई की ओर ध्यान नहीं दिया गया। कई स्टेशन तो उंचे हैं, कई तो मकानों की पहली मंजिल जितने उंचे हैं। अब इतनी उचाई से प्रदूषण के आंकड़े कैसे सहीं लिये जा सकते हैं। क्योंकि प्रदूषण तो जमीन से कुछ उंचाई पर रहता है। जैसे जैसे उंचाई बढ़ेगी, प्रदूषण कम होता रहता है। अब इस ऐसे में कैसे सहीं आंकड़े आ सकते हैं?

उन्होंने यह भी कहा कि जो आंकड़े प्रदूषण बढ़ने की ओर इशारा करते है, उन्हें जुटाया ही नहीं जाता। मसलन

मैजेस्टिक और पीन्या औद्योगिक क्षेत्र के आंकडे़ है ही नहीं। जबकि यह समझना बेहद जरूरही है कि सहीं आंकड़ों से ही तो समस्या की गंभीरता का पता चलेगा। भ्रामक आंकड़ों से समस्या की गंभीरता पता ही नहीं  चल सकती, इस तरह से समस्या को अनेदखा किया जा सकता है, उसे कम नहीं किया जा सकता।

उन्होंने कहा कि बोर्ड के पास बीस साल पुरानी मशीने हैं, इन्हें तुरंत बदलने की जरूरत है। इस तरह की तकनीक और मशीन होनी चाहिए जो सही आंकड़ा दें।
गैर-सरकारी संस्था  इको-वॉच के निदेशक अक्षय हेबिलकर ने कहा कि शहर में वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, लोगों का स्वास्थ्य पर इसका विपरीत असर पड़ रहा है। यह बेहद चिंता का विषय है। उन्होंने कहा कि एेसे में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का प्रदूषण कम होने का दावा सहीं नहीं है। क्योंकि प्रदूषण बढ़ रहा है, इसलिए बोर्ड अपनी उपयोगिता बनाये रखने के लिए इस तरह के दावे कर रहा है। होना तो यह चाहिये कि बोर्ड प्रदूषण को कम करने के उपाय अमल में लाये। लेकिन यहां तो इस मसले पर बोर्ड सिर्फ लापरवाही ही बरत रहा है।

उन्होंने कहा कि प्रदूषण की दोहरी मार हमारे उपर पड़ रही है। क्योंकि एक ओर तो  प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है, इधर  हम पेड़ काट रहे हैं। जबकि पेड़ कुछ हद तक प्रदूषण को कम करते हैं। वह वायुमंडल में फैली
कार्बन डाइऑक्साइड की  मात्रा को सोख लेते हैं। इससे प्रदूषण का स्तर कुछ कम हो सकता है। उन्होंने कहा कि यदि बेंगलुरु को दिल्ली बनने से रोकना है तो हम सभी को प्रदूषण कम करना होगा। क्योंकि यदि इसी तरह से प्रदूषण बढ़ता रहा तो बेंगलुरु अगली दिल्ली होगा।
(लेखक बेंगलुरू स्थिति  स्वतंत्र पत्रकार है। वह  101Reporters.com
अखिल भारतीय ग्रासरुट रिपोर्टर्स  नेटवर्क के सदस्य है)

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