शहरों की प्रदूषित हवा रोक रही गर्भस्थ शिशु का मानसिक विकास
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शहरों की प्रदूषित हवा रोक रही गर्भस्थ शिशु का मानसिक विकास 

कपिल काजल, बेंगलुरु कर्नाटक:

हवा में बढ़ते प्रदूषण से हम ही प्रभावित नहीं हो रहे हैं, बल्कि इसका प्रतिकूल असर गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ रहा है। विशेषज्ञों का कहना है प्रदूषण की वजह से भ्रूण के मानसिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ने के मामलों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में क्लाइमेट चेंज सेंटर डिवचा के प्रोफेसर
पीडियाट्रिक पल्मोनोलॉजिस्ट डाक्टर परमीश ने बताया कि वाहनों से निकलने वाले धुएं की वजह से हवा में सीसे का स्तर 86% तक बढ़ जाता है। सीसे की बढ़ी हुई मात्रा हवा को जहरीला बना देती है। जब हम इस तरह की हवा में सांस लेते है तो प्रदूषण हमारे खून में शामिल हो जाता है।

उन्होंने बताया कि 863 बच्चों के खून के नमूनों की जांच की गयी। इसमें 25 खून के नमूने शिशुओं के थे। रिपोर्ट से सामने आया कि इनके खून में सीसे की मात्रा 4.6 प्रतिशत तक बढ़ी हुई थी। इसका सीधा सा मतलब था कि बच्चों के खून में सीसे की मात्रा हवा में प्रदूषण की वजह से बढ़ी है। शिश जब भ्रूण था तो माता प्रदूषित हवा में सांस लेती रही। इसका प्रतिकूल असर शिशु पर आया है। इस तरह की हवा में सांस लेने से शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास पर भी असर पड़ता है। इस रिपोर्ट से पता चलता है कि प्रदूषण भ्रूण के मानसिक क्षमता कम हो रही है। जो बच्चों के लिए बड़ा खतरा बन कर उभर रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार हवा में पारे का बढ़ता स्तर न्यूरोटॉक्सिकेंट को बढ़ा देत है। इस तरह की प्रदूषित हवा में सांस लेने वाले शिशुओं व भ्रूण के मानसिक व शारीरिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
गर्भ में जब भ्रण का जब विकास हो रहा होता है तो प्रदूषण की वजह से उसका स्नायु तंत्र के साथ साथ रोगप्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। यह प्रतिकूल असर यहीं खत्म नहीं हो जाता, बल्कि भ्रण जब व्यस्क होगा तो उसकी प्रजनन क्षमता पर भी इसका असर पड़ेगा।
सेंटर फॉर साइंस स्पिरिचुअलिटी के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ शशिधर गंगैया ने बताया कि सीसा, जस्ता, पारा, आर्सेनिक और क्रोमियम जैसी भारी धातुओं के प्रदूषण से गर्भस्थ शिशु का विकास प्रभावित हो सकता है, इसके साथ ही यह प्रदूषण शिशु के आनुवंशिक और एपिगेनेटिक स्तर पर भी प्रति कूल असर डाल सकता है।

बेंगलुरु के औद्योगिक क्षेत्रों , बिदादी, राजाजी नगर, पीन्या, नेलमंगला और व्हाइटफ़ील्ड जैसे औद्योगिक क्षेत्रों की हवा में भारी धातुओं के कणों की मात्रा काफी बढ़ी हुई रहती है। इससे पहले ही यह हवा प्रदूषित है। डॉ गंगैया ने कहा कि अब अगर भारी धातुओं के कचरे को जला दिया जाता है तो इससे निकलने वाली जहरीली गैस हवा के प्रदूषण को कई गुणा और बढ़ा देगी।

शिशु मृत्यु दर प्रभावित

प्रदूषण का बढ़ता स्तर बच्चों के मानसिक विकास में ही बाधा नहीं पहुंचा रहा है, बल्कि यह उनकी मौत की वजह भी बन सकता है। नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफॉर्मेशन के एक अध्ययन से पता चला है कि इस बात के पुख्ता प्रमाण है कि गर्भस्थ शिशु का स्वास्थ्य इस बात पर भी निर्भर करता है कि उसकी माता ने किस तरह की हवा में सांस लिया। हवा में यदि सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, ओजोन और कार्बन मोनोऑक्साइड का स्तर बढ़ा हुआ है तो इसका सीधा असर शिशु पर आयेगा।

“इस बात के पुख्ता प्रमाण है कि ऐसी प्रदूषित हवा में जन्मे बच्चे का वजन सामान्य से कम पाया गया है। हवा में प्रदूषित तत्वों की मात्रा बढ़ने से समय पूर्व डिलीवरी के खतरे बढ़ने का भी पुख्ता प्रमाण है। पैदा होने वाले बच्चे का वजन कम हो सकता है, उसके शरीर का विकास सामान्य से कम रह सकता है। अध्ययन में कहा गया है कि वायु प्रदूषण के कारण नवजात मृत्यु दर, बच्चे में मोटापा, फेफड़े की कम कार्यक्षमता और इंफेक्शन भी बढ़ रहे हैं।

डॉ परमीश द्वारा किये गये शोध के मुताबिक पांच वर्ष से कम आयु के 77% से अधिक बच्चे और एक से कम आयु के 26% से अधिक बच्चों को सांस लेते वक्त घरघराहट की समस्या से पीड़ित है। इसकी बड़ी वजह यहीं है कि जब यह भ्रूण थे तो माता प्रदूषित हवा में लगातार सांस ले रही थी।

https://datawrapper.dwcdn.net/8ZEaM/1/ (फुलस्क्रीन)

https://www.datawrapper.de/_/8ZEaM/ (सामान्य)

डाक्टर गंगाया ने बताया कि धातुओं के जहरीले कण से प्रदूषित हवा में सांस लेने वाले बच्चों की मृत्य आम है। बच्चों की तुलना में व्यस्कों के फेफड़ों की क्षमता 120 गुणा होती है। उनकी सांस नली भी 20 एमएम की हेाती है। बच्चों की सांस नली छह से आठ मिलीमीटर की होती है। अब यदि बच्चें और बड़े दोनों ही प्रदूषित हवा में सांस ले रहे हैं तो इस वजह से उनकी सांस नली चार मिलीमीटर तक जाम हो सकती है। अब क्योंकि बच्चों की स्वास नली पहले ही छह से आठ मिलीमीटर की है, ऐसे में अब उन्हें बड़ों की तुलना में कम आक्सीजन मिल पाती है। जो उनकी मौत् की वजह भी बन जाती है। बच्चों का कद क्योंकि छोटा होता है। उसकी उंचाई और वाहन के साइलेंसर की उंचाई में ज्यादा अंतर नहीं होता, इस तरह से बच्चे के सांस के माध्यम से वाहन का जहरीला धुआं सीधा उसके शरीर में जाता है। इसलिए प्रदूषण की वजह से बच्चे हमेशा ही भारी जोखिम में रहते हैं।
एक पर्यावरणविद् संदीप अनिरुद्धन ने सुझाव दिया कि बढ़ती सांस की बीमारियों को रोकने का एक ही तरीका है, और वह है प्रदूषण पर रोक लगाना। इसके लिए हमें अलग अलग उपाय करने होंगे। सड़कों से वाहनों की संख्या कम हो, इसके लिए सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को मजबूत करना होगा। रेलवे मेट्रो को बढ़ावा देना होगा। सड़कों पर बसों के लिए अलग से लेन होनी चाहिए। इससे बस तेजी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच सकती है। यदि ऐसा होता है तो लोग अपने निजी वाहन से यात्रा करने की बजाय बस आदि इस्तेमाल करेंगे।
(लेखक मुंबई स्थित स्वतंत्र लेखक हैं और 101Reporters.com के ग्रासरूट रिपोर्टर्स नेटवर्क के सदस्य है। )

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कपिल काजल, बेंगलुरु कर्नाटक:

हवा में बढ़ते प्रदूषण से हम ही प्रभावित नहीं हो रहे हैं, बल्कि इसका प्रतिकूल असर गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ रहा है। विशेषज्ञों का कहना है प्रदूषण की वजह से भ्रूण के मानसिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ने के मामलों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में क्लाइमेट चेंज सेंटर डिवचा के प्रोफेसर
पीडियाट्रिक पल्मोनोलॉजिस्ट डाक्टर परमीश ने बताया कि वाहनों से निकलने वाले धुएं की वजह से हवा में सीसे का स्तर 86% तक बढ़ जाता है। सीसे की बढ़ी हुई मात्रा हवा को जहरीला बना देती है। जब हम इस तरह की हवा में सांस लेते है तो प्रदूषण हमारे खून में शामिल हो जाता है।

उन्होंने बताया कि 863 बच्चों के खून के नमूनों की जांच की गयी। इसमें 25 खून के नमूने शिशुओं के थे। रिपोर्ट से सामने आया कि इनके खून में सीसे की मात्रा 4.6 प्रतिशत तक बढ़ी हुई थी। इसका सीधा सा मतलब था कि बच्चों के खून में सीसे की मात्रा हवा में प्रदूषण की वजह से बढ़ी है। शिश जब भ्रूण था तो माता प्रदूषित हवा में सांस लेती रही। इसका प्रतिकूल असर शिशु पर आया है। इस तरह की हवा में सांस लेने से शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास पर भी असर पड़ता है। इस रिपोर्ट से पता चलता है कि प्रदूषण भ्रूण के मानसिक क्षमता कम हो रही है। जो बच्चों के लिए बड़ा खतरा बन कर उभर रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार हवा में पारे का बढ़ता स्तर न्यूरोटॉक्सिकेंट को बढ़ा देत है। इस तरह की प्रदूषित हवा में सांस लेने वाले शिशुओं व भ्रूण के मानसिक व शारीरिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
गर्भ में जब भ्रण का जब विकास हो रहा होता है तो प्रदूषण की वजह से उसका स्नायु तंत्र के साथ साथ रोगप्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। यह प्रतिकूल असर यहीं खत्म नहीं हो जाता, बल्कि भ्रण जब व्यस्क होगा तो उसकी प्रजनन क्षमता पर भी इसका असर पड़ेगा।
सेंटर फॉर साइंस स्पिरिचुअलिटी के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ शशिधर गंगैया ने बताया कि सीसा, जस्ता, पारा, आर्सेनिक और क्रोमियम जैसी भारी धातुओं के प्रदूषण से गर्भस्थ शिशु का विकास प्रभावित हो सकता है, इसके साथ ही यह प्रदूषण शिशु के आनुवंशिक और एपिगेनेटिक स्तर पर भी प्रति कूल असर डाल सकता है।

बेंगलुरु के औद्योगिक क्षेत्रों , बिदादी, राजाजी नगर, पीन्या, नेलमंगला और व्हाइटफ़ील्ड जैसे औद्योगिक क्षेत्रों की हवा में भारी धातुओं के कणों की मात्रा काफी बढ़ी हुई रहती है। इससे पहले ही यह हवा प्रदूषित है। डॉ गंगैया ने कहा कि अब अगर भारी धातुओं के कचरे को जला दिया जाता है तो इससे निकलने वाली जहरीली गैस हवा के प्रदूषण को कई गुणा और बढ़ा देगी।

शिशु मृत्यु दर प्रभावित

प्रदूषण का बढ़ता स्तर बच्चों के मानसिक विकास में ही बाधा नहीं पहुंचा रहा है, बल्कि यह उनकी मौत की वजह भी बन सकता है। नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफॉर्मेशन के एक अध्ययन से पता चला है कि इस बात के पुख्ता प्रमाण है कि गर्भस्थ शिशु का स्वास्थ्य इस बात पर भी निर्भर करता है कि उसकी माता ने किस तरह की हवा में सांस लिया। हवा में यदि सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, ओजोन और कार्बन मोनोऑक्साइड का स्तर बढ़ा हुआ है तो इसका सीधा असर शिशु पर आयेगा।

“इस बात के पुख्ता प्रमाण है कि ऐसी प्रदूषित हवा में जन्मे बच्चे का वजन सामान्य से कम पाया गया है। हवा में प्रदूषित तत्वों की मात्रा बढ़ने से समय पूर्व डिलीवरी के खतरे बढ़ने का भी पुख्ता प्रमाण है। पैदा होने वाले बच्चे का वजन कम हो सकता है, उसके शरीर का विकास सामान्य से कम रह सकता है। अध्ययन में कहा गया है कि वायु प्रदूषण के कारण नवजात मृत्यु दर, बच्चे में मोटापा, फेफड़े की कम कार्यक्षमता और इंफेक्शन भी बढ़ रहे हैं।

डॉ परमीश द्वारा किये गये शोध के मुताबिक पांच वर्ष से कम आयु के 77% से अधिक बच्चे और एक से कम आयु के 26% से अधिक बच्चों को सांस लेते वक्त घरघराहट की समस्या से पीड़ित है। इसकी बड़ी वजह यहीं है कि जब यह भ्रूण थे तो माता प्रदूषित हवा में लगातार सांस ले रही थी।

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डाक्टर गंगाया ने बताया कि धातुओं के जहरीले कण से प्रदूषित हवा में सांस लेने वाले बच्चों की मृत्य आम है। बच्चों की तुलना में व्यस्कों के फेफड़ों की क्षमता 120 गुणा होती है। उनकी सांस नली भी 20 एमएम की हेाती है। बच्चों की सांस नली छह से आठ मिलीमीटर की होती है। अब यदि बच्चें और बड़े दोनों ही प्रदूषित हवा में सांस ले रहे हैं तो इस वजह से उनकी सांस नली चार मिलीमीटर तक जाम हो सकती है। अब क्योंकि बच्चों की स्वास नली पहले ही छह से आठ मिलीमीटर की है, ऐसे में अब उन्हें बड़ों की तुलना में कम आक्सीजन मिल पाती है। जो उनकी मौत् की वजह भी बन जाती है। बच्चों का कद क्योंकि छोटा होता है। उसकी उंचाई और वाहन के साइलेंसर की उंचाई में ज्यादा अंतर नहीं होता, इस तरह से बच्चे के सांस के माध्यम से वाहन का जहरीला धुआं सीधा उसके शरीर में जाता है। इसलिए प्रदूषण की वजह से बच्चे हमेशा ही भारी जोखिम में रहते हैं।
एक पर्यावरणविद् संदीप अनिरुद्धन ने सुझाव दिया कि बढ़ती सांस की बीमारियों को रोकने का एक ही तरीका है, और वह है प्रदूषण पर रोक लगाना। इसके लिए हमें अलग अलग उपाय करने होंगे। सड़कों से वाहनों की संख्या कम हो, इसके लिए सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को मजबूत करना होगा। रेलवे मेट्रो को बढ़ावा देना होगा। सड़कों पर बसों के लिए अलग से लेन होनी चाहिए। इससे बस तेजी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच सकती है। यदि ऐसा होता है तो लोग अपने निजी वाहन से यात्रा करने की बजाय बस आदि इस्तेमाल करेंगे।
(लेखक मुंबई स्थित स्वतंत्र लेखक हैं और 101Reporters.com के ग्रासरूट रिपोर्टर्स नेटवर्क के सदस्य है। )

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