नैतिक मूल्य, विचारधारा, सिद्धांत, एकता और समन्वय के भाव से परे भारत में राजनीति अब ‘मतलब’ तक सीमित रह गयी है। 90 का दशक शुरू होने के बाद जहाँ एक ओर परिवारवाद की राजनीति पूरे देश में दीमक की तरह फ़ैल रही था वहीँ ‘ग्लैमर’ बॉलीवुड और क्रिकेट को छोड़ राजनीतिक गलियारों में अपना घर तलाश रही थी। कार्यकर्ताओं के कमजोर कंधे अपने ‘आदर्शों की अर्थी’ उठाने में असमर्थ होते दिख रहे थे और आज हाल कुछ ऐसा है कि किसी भी पार्टी में ‘कार्यकर्त्ता’ जैसी कोई चीज़ रह नहीं गयी है।
दलों को ‘मिस काल’ वाले कार्यकर्ताओं का सहारा
- धरतीपकड़ कार्यकर्ताओं की कमी आज सभी पार्टियों में साफ़ देखी जा रही है
- रैलियों में ‘कार्यकर्ता’ नहीं खरीदी हुई ‘भीड़’ दिख रही है
- लोग आवाज़ उठाने और लोकप्रियता पाने के लिए मंच नहीं ‘सोशल मीडिया’ का सहारा ले रहे हैं
- किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता अब अपनी ‘मूल विचारधारा’ को छोड़ व्यक्तिगत हित को ऊपर रख रहे हैं
क्या है इसका मुख्य कारण
- कार्यकर्ताओं की अनदेखी उनके इस रवैय्ये का प्रमुख कारण है
- खुद को ‘लोकतान्त्रिक दल’ कहने वाली पार्टियों में भी फैसले दो या तीन लोग ही लिया करते हैं
- ऐसे में कार्यकर्ता की कोई ‘अहम् भूमिका’ नहीं रह जाती
- हारकर ‘रोटी, कपडा और मकान’ के संघर्ष में ‘आदर्श’ कहीं पीछे छूट जाता है
राजनीतिक दल अब ‘अधिया’ पर
- राजनीतिक दल अब निष्ठावान कार्यकर्ताओं के नहीं, अपितु ‘फाइनांसर’ की राय चलते हैं
- दलों का हर एक नेता किसी ना किसी ‘पूंजीपति’ के आगे बेबस है
- ठेंगे पर है आदर्श, सत्ता का मूल उद्देश्य जनसेवा नहीं अब स्वयंसेवा हो गयी है
- सच कहें तो कार्यकर्ताओं की खेती अब दलों में बंद हो चुकी है
मशहूर इतिहासकार पैट्रिक फ्रेंच ने अपनी एक किताब में कहा था कि “भारत में राजनीति अगर ऐसे ही चलती रही तो जल्द ही माहौल ‘राजतंत्र’ जैसा हो जाएगा”, जनता के सेवक अब जनता को ‘प्रजा’ और खुद को ‘राजा’ मान बैठे हैं, दरबार भी कुछ ऐसा जहाँ कुछ ‘चाटुकारों’ को छोड़ बाकी सबकी राय ताक पर होती है। इतिहास खुद को दोहराता जरूर है, और ऐसे में हम सिर्फ यही उम्मीद कर सकते हैं कि वो समय वापिस आये जब नेताओं की कार्यकर्ताओं के प्रति जवाबदेही और और कार्यकर्ता ‘ठगा’ हुआ न महसूस करे!