अंगारिका गोगोई
बेंगलुरु, कर्नाटक
एक ओर शहर के अमीर लोग है, उन्हें उनके अपार्टमेंट में पाइप से गैस उपलब्ध कराने की तैयारी अंतिम चरण में हैं। दूसरी ओर कई शहरी गरीब अभी भी खाना पकाने के लिए लकड़ी और गोबर पर निर्भर हैं। उनके लिए भोजन पकाने का यह भले ही सस्ता विकल्प हो, लेकिन वह शायद नहीं जानते, इसकी उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ती है। क्योंकि इस ईंधन से उनकी सेहत तेजी से खराब हो रही है।
भारतीय विज्ञान संस्थान के प्रोफेसर और
अनुभवी छाती एवं सांस रोग विशेषज्ञ प्रोफेसर डाक्टर डॉ एच परमीश ने 2018 में करंट साइंस में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया था कि चूल्हा प्रति घंटे 400 सिगरेट के बराबर धुआं छोड़ता है। अध्ययन के मुताबिक
जिन घरों में भोजन पकाने के लिए लकड़ी, पौधों के डंठल आदि का उपयोग ईंधन के लिए किया जाता है, वहां अस्थमा के 47 प्रतिशत तेजी से अस्थमा होता है।
इसके विपरीत जिन घरों में खाना बनाने के लिए गैस और बिजली का उपयोग किया जाता है, वहां अस्थमा होने का अंदेशा तीन प्रतिशत से कम पाया गया।
ऐसे घर जिसमें लगातार चूल्हा चल रहा है, इसमें रोशन दान नहीं है, हवा का आवागमन ठीक से नहीं होता, वहां अस्थमा की संभावना 42.7प्रतिशत अधिक होती है। व्यापकता है। शहर के बागमैन टेक पार्क के पीछे बहुत सी झुग्गियों में यहीं हालात है। यहां रहने वाली दूसरी अन्य महिलाओं की तरह
भाग्यम्मा150-वर्ग फुट की झोपड़ी में रहती है। झोपड़ी में और एक दरवाजे के अलावा हवा के आवागमन के लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं है। अब
जब वह अपने चूल्हे पर खाना बनाती है तो सारा धुआं झोपड़ी में फैल जाता है। क्योंकि धुएं के निकलने का कोई रास्ता नहीं है। इस तरह से झोपड़ी में फैला धुआं सांस के माध्यम से उसके शरीर में चला जाता है।
28 वर्षीय एक महिला जो कि तीन बच्चों की मां है, उसने झोपड़ी में खाना बनाने के अपने अनुभव को ने 101Reporters साथ साझा करते हुए बताया कि वह हर दिन कम से कम चार घंटे खाना बनाती हैं। इस दौरान उसे खाँसी आती रहती है और साँस फूल जाती है। उसकी आंखे जलती रहती है, इसमें लगातार पानी निकलता रहता है। जब वह खाना बनाती है तो उसके बच्चे भी वहीं होते हैं। इस तरह ये न सिर्फ यह महिला बल्कि उसके बच्चे भी इस धुएं में लगातार रहते हैं।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर मनु वीमथाई,ने उर्जा नीति और प्रावधान पर एक अध्ययन किया, उन्होंने बताया कि खाना बनाने के लिए ठोस ईंधन का प्रयोग एक दंड है, अपनी सेहत दांव पर लगा कर वह इसका जुर्माना अदा कर रहे हैं।
क्योंकि लंबे समय तक इस धुंए में रहने से का सीधा असर फेफड़ों पर पड़ता है। इससे फेफड़ों का कैंसर भी हो सकता है।
इससे उनमें सांस और फेफड़ों की गंभीर बीमारी
क्रोनिकऑब्सट्रक्टिवपल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) हो सकती है।
बेंगलुरु अस्पताल के सांस एवं छाती रोग विशेषज्ञ डाक्टर श्रीगिरी एस रेवाडी ने बताया कि जलती लकड़ी से निकलने वाले धुएँ में मौजूद कार्बन कण फेफड़ों पर असर डालते हैं। इससे उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।
सांस की नलियों में सूजन आ सकती है।
हालांकि सांस सिस्टम कण को रोक सकता है। लेकिन जब कणों का आकार पीएम 2.5 हो यह फेफड़ों तक पहुंच सकता है। सांस रोग विशेषज्ञों का कहना है कि लगातार धुएं में रहने से सीओपीडी, बलगम संक्रमण होने की संभावना कई गुणा बढ़ जाती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार हवा में स्थित पीएम 2.5 की मात्रा 25 माइक्रोग्राम से अधिक नहीं होनी चाहिए।
इस रिपोर्टर ने चूल्हे का प्रयोग करने वाले घरों में जब 2.5 की मात्रा उन घरों में कई हजार गुना थी। रिपोर्टर ने 69 वर्षीय ललिता बाई के छोटे से कमरे का दौरा किया, वह सोमेश्वर कॉलोनी में अपने पोते के साथ रहती है। वह चूल्हे का उपयोग करती है, वहां रिपोर्टर ने हवा की गुणवत्ता की जांच करने वाले उपकरण साइडपैक एरोसोल से जांचा तो पाया कि
मॉनिटर ने दिखाया कि ललिता जब खाना बना रही थी तो उसके घर में पीएम 2.5 का स्तर 13 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर था।
खाना पकाने के तीन मिनट बाद, पीएम2.5 का न्यूनतम स्तर 4,620 एमजी /m 3 था, जो कि अधिकतम 9,150 /g/m 3 और औसत 7,440 mg/m 3 था।
चूल्हे के सामने बैठकर ललिता की आँखों में पानी आ रहा था। उसने बताया कि जब भी वह चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी का इस्तेमाल करती है तो उसकी आंखों में जलन होने लगती है। उसे बार बार खांसी होती है, इसके साथ साथ बलगम भी निकलता है।
शहर की स्वास्थ्य संबंधी गतिविधियां चलाने वाली एनजीओ अनाहत फाउंडेशन की सह-संस्थापक रानी देसाई ने बताया कि गरीब इलाकों और झोपड़ पट्टी में ईंधन के तौर पर लकड़ी का इस्तेमाल होता है।
। देसाई ने कहा कि उनकी टीम ने माचोहल्ली,मगदी रोड में देखा है कि यहां चूल्हे में काफी मात्रा में लकड़ी का प्रयोग होता है। यहां उन्होंने कई बच्चों को एलर्जी से पीड़ित देखा है। ठंड के दिनों में यह लोग खुद को गर्म रखने के लिए चूल्हे का इस्तेमाल करते हैं, जिसका दुष्प्रभाव इन पर बीमारियों के रूप में पड़ रहा है। डब्ल्यूएचओ ने 2016 में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट खाना बनाने के लिए प्रदूषित रहित ईंधन और स्वास्थ्य में इस बात की ओर जानकारी दी थी कि चूल्हे से निकलने वाले धुएं का खामियाजा सबसे ज्यादा महिलाओं और बच्चों को उठाना पड़ता है।
सरकार की योजना
केंद्र ने स्वच्छ ईंधन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 2016 में प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना की शुरुआत की है। ताकि गरीबी-रेखा के नीचे रह रहे परिवार के लोगों को भी खाना बनाने के लिए प्रदूषण रहित ईंधन मिल सके। इस योजना के तहत
सब्सिडी पर एलपीजी कनेक्शन दिया जाता है।कोलार जिले में किए गए एक अध्ययन से साबित होता है कि सरकार की उज्ज्वला योजना गरीबों में ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो रही है।
जर्नल नेचर एनर्जी में प्रकाशित, अध्ययन ने कहा कि ~35% उज्ज्वला लाभार्थियों ने पहले साल के भीतर अपने गैस सिलेंडर को रिफिल नहीं कराया। केवल 7% ने चार या इससे अधिक बार सिलेंडर रिफिलकराया। अध्ययन में आगे कहा गया है कि एक पारंपरिक ग्रामीण परिवार को साल भर में लगभग दस सिलेंडर की जरूरत होती है।उज्जवला योजना के लाभार्थी साल में 2.3 सिलेंडर ही रिफिल करा रहे हैं।
ललिता ने उज्जवला योजना का लाभ नहीं उठाया, उनके पास एक एलपीजी सिलेंडर है, साथ ही
घर पर चूल्हा भी है। वह एलपीजी का उपयोग खाना पकाने के लिए करती है,फिर भी चूल्हे का उपयोग बंद नहीं किया है। क्योंकि चूल्हे पर खाना बनाना उसके लिए अपेक्षाकृत सस्ता पड़ता है। उसने बताया कि एलपीजी सिलेंडर की कीमत लगभग 750 से 800 रुपए है। यह पैसा उसके लिए बहुत ज्यादा है। कई बार तो गैस सिलेंडर महिना भर भी खाली रहता है, इस दौरान वह चूल्हे से खाना बनाती है।
मथाई ने बताया कि अब सवाल लोग वहीं इस्तेमाल करेंगे जो उन्हें फौरी तौर पर सस्ता पड़ता है। क्योंकि लकड़ी सस्ती पड़ती है, इसलिए वह इसका इस्तेमाल करते हैं। यहीं वजह है कि वह
गैस सिलेंडर को रिफिल करने के प्रति ज्यादा रुचि नहीं रखते।
29 वर्षीय भाग्यम्मास जोकि रेणुका की पड़ोसन है, खाना पकाने के लिए केवल चूल्हे का उपयोग करती हैं, उन्हें
उज्जवला योजना की जानकारी नहीं है। उन्हें यह तक नहीं पता कि इसकी पात्रता के मानदंड क्या है। इसके साथ ही वह एलजीपी गैस की सुरक्षा के प्रति भी चिंतित है। उसके तीन छोटे बच्चे हैं, वह नहीं जानती कि ऐसे में घर में एलपीजी सिलेंडर उसके लिए कितना सुरक्षित है।
यहीं वजह है कि एक तो एलजीपी गैस के उपयोग में गरीब लोगों के सामने इसकी कीमत ज्यादा मायने रख रही है, दूसरा उन्हें इसके बारे में ज्यादा जानकारी भी नहीं है। साथ ही वह यह भी नहीं जानते हैं कि खाना बनाने के लिए प्रदूषण रहित ईंधन कितना जरूरी है। इस सब की जानकारी के अभाव में वह लकड़ी के चूल्हे से खाना बना रहे हैं और इस तरह से अपनी सेहत को दांव पर लगा रहे हैं।