कपिल काजल
बेंगलुरु कर्नाटक
बढ़ते प्रदूषण की वजह से शहर में क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) के केस तेजी से बढ़ रहे हैं। सीओपीडी फेफड़ों की बीमारी (इसके लक्षण अस्थमा और ब्रोंकाइटिस से मिलते-जुलते हैं। यह क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस है जिसमें मरीज की एनर्जी कम हो जाती है, वह कुछ कदम चलकर ही थक जाता है। सांस नली में नाक से फेफड़े के बीच सूजन के कारण ऑक्सीजन की सप्लाई घट जाती है)
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, सीओपीडी के कारण हर 10 सेकंड में एक व्यक्ति की मौत हो जाती है। तंबाकू, डीजल व पेट्रोल से होने वाला प्रदूषण, धुआँ, स्मॉग और वायु प्रदूषण इस बीमारी की बड़ी वजह है।सीओपीडी कितना खतरनाक है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विश्व में हद दस सेकेंड में एक व्यक्ति की मौत इससे हो रही है।
बेंगलुरु में केम्पेगौड़ा इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस के एक अध्ययन के अनुसार, में सीओपीडी 4.36% लोगों को प्रभावित कर रहा है। हालांकि इससे प्रभावित होने वालों में पुरुषों का प्रतिशत 5.32% और महिलाओं 3.41 प्रतिशत शामिल है। जैसे जैसे उम्र बढ़ती है, सीओपीडी का असर तेज होना शुरू हो जाता है। इसके साथ ही धूम्रपान की आदत से इसकी चपेट में आने के चांस कहीं ज्यादा हो जाते हैं। शहर के छाती और सांस रोग विशेषज्ञ डाक्टर शशिधर ने 101 रिपोर्टर्स को बताया कि शहर में सीओपीडी के केस लगातार बढ़ रहे हैं। इसमें भी गरीब लोगों की संख्या ज्यादा है। जिनके पास भोजन पकाने के लिए अच्छा ईंधन नहीं होता।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार, सीओपीडी के सबसे सामान्य लक्षण सांस की तकलीफ, अत्यधिक थूक है (लार और बलगम का मिश्रण) पुरानी खांसी। जो कि एक स्थिति के बाद लाईलाज हो जाती है, और अंत में मरीज की मौत हो जाती है। जिस तरह से प्रदूषण बढ़ रहा है, इससे अगले 20 सालों में
सीओपीडी के मामले बढ़ने की संभावना है। डब्ल्यूएचओ का मानना है कि विश्व में यह हर तीसरी मौत का प्रमुख कारण हो सकता है।
कर्नाटक हेल्थ विभाग के अनुसार 2016 में जानलेवा 15 बीमारियों में सीओपीडी दूसरे स्थान पर है। जबकि 1990 में कर्नाटक में यह नौवें नंबर पर था। भारतीय विज्ञान संस्थान के प्रोफेसर अौर बच्चों में सांस और छाती रोग विशेषज्ञ डाक्टर डॉक्टर एच परमेश ने बताया कि नाक से सांस लेते हुए प्रदूषण शरीर में प्रवेश करना शुरू कर देता है। गले से होता हुए हानिकारक तत्व सांस नली के रास्ते फेफड़ों को अपनी चपेट में लेते हैं। यहीं वजह है कि थोड़ा सा वायु प्रदूषण भी हानिकारक है। सांस नली इससे प्रभावित होती है, जो
अस्थमा और सीओपीडी की वजह बन जाते हैं।
उन्होंने बताया कि यदि प्रदूषण का स्तर कम है तो यह अस्थमा की बीमारी को जन्म देता है। यदि प्रदूषण ज्यादा है तो इससे सीओपीडी अपनी चपेट में ले सकता है।
सीओपीडी से मौत का ग्राफ भी तेजी से बढ़ रहा है। 1990 में 43,500 लोगों ने अपनी जान गंवायी, 2015 में इससे 1.07 लाख लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
स्टेट ग्लोबल एयर 2017 की रिपोर्ट के अनुसार विश्वभर में ओजोन गैस के 67 प्रतिशत के लिए भारत जिम्मेदार है, 25 सालों में यहां ओजोन की वजह से मौतों में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
इकोलॉजिकल सिक्योरिटी ऑफ इंडिया के गवर्निंग काउंसिल मेंबर डाक्टर येलपा रेड्डी, ने बताया कि इससे बचने का एक ही तरीका है, वह यह है कि शहरों में ज्यादा से ज्यादा पौधे लगाए जाए। प्रदूषण मुक्त सार्वजनिक वाहन की व्यवस्था होनी चाहिए। लोग यदि अपने अपने वाहन से यात्रा करते हैं तो इसके लिए कारपूलिंग बेहतर विकल्प है। इसे हर हालत में अपनाया जाना चाहिए।बच्चें क्योंकि सांस और इस तरह की बीमारियों में जल्दी चपेट में आते हैं, इसलिए उन्हें धू्म्रपान के धुएं और प्रदूषण से बच कर रखना चाहिए। उन्हें सांस लेने के लिए शुद्ध व साफ सूथरी हवा मिले इसका विशेष तौर पर ध्यान रखना चाहिए।
उपलेव कृषि अवशेष से खाना बनाने वाली महिलाओं को गंभीर खतरा
अपने एक अध्ययन में
डॉक्टर परमेश ने पाया कि शहर के बाहर छोटे झोपड़ों और चाल में रहने वाली महिलाएं खाना बनाने के लिए उपले और कृषि अवशेष को ईंधन के तौर पर इस्तेमाल कर रही है। इस दौरान सांस के माध्यम से यह धुआं उनके शरीर मे जाता है। इस तरह से खाना बना रही महिला के शरीर में एक घंटे में 400 सिगरेट के बराबर धुआं सांस के माध्यम से प्रवेश कर जाता है। लकड़ी से दमा
उन्होंने बताया कि खाना बनाने की गैस, बिजली या केरोसिन, की जगह यदि कोई महिला गोबर के उपले के ईंधन से खाना तैयार करती है तो दमा होने के 48.8%, कृषि अवशेष के इस्तेमाल से 47.8% और लकड़ी के इस्तेमाल से 46.6% तक दमा होने की संभावना होती है। इसके विपरीत
केरोसिन से 8.3%, गैस 2.6% और और बिजली को खाना बनाने के लिए इस्तेमाल करने पर दमा के चांस 1.2% तक होते हैं।
बेंगलुरु के सेंट मार्था के अस्पताल के एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि में 4,160 महिलाओं में से 87 महिलाएं
सीओपीडी से ग्रस्त थी। इसकी वजह यह निकल कर सामने आयी कि वह खाना बनाने के लिए इंधन के तौर पर उपले, लकड़ी या कृषि अवशेष का इस्तेमाल कर रही थी। इनसे निकलने वाल धुआं महिलाओं के लिए बड़ा जोखिम है।
“भारत में, 75% गरीब लोग खाना बनाने के लिए जिस तरह का ईंधन प्रयोग कर रहे हैं, इससे घर के अंदर प्रदूषण के स्तर बढ़ जाता है। इससे उनके स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ता है।
डाक्टर शशिधर ने बताया कि घर के अंदर कार्बन के अति सुक्ष्म कणों और ओजोन गैस की मात्रा बढ़ जाती है। यह स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि इन लोगों को खाना बनाने के लिए स्वच्छ ईंधन, उपलब्ध कराया जाना चाहिए, वह चाहे बिजली हो या एलपीजीगैस।
(लेखक बेंगलुरु आधारित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वह अखिलभारतीय ग्रासरूट रिपोर्टर्स नेटवर्क 101रिपोर्टर्स के सदस्य है। )