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शाह की दूसरी पारी : सियासी मजबूरी या मास्टर-स्ट्रोक?

हाल में ही भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर अमित शाह की दोबारा ताजपोशी हुई है। अभी तक वह अपने पूर्ववर्ती राजनाथ सिंह के कार्यकाल का बचा हुआ समय पूरा कर रहे थे, कहा जा सकता है कि शाह की पिछली पारी एक तरह से उनका प्रोबेशन काल था और उनका असली कार्यकाल अब शुरु हुआ है। वर्तमान के घटनाक्रम पर नजर डाले तो प्रतीत होता है कि शाह का यह कार्यकाल भाजपा की सियासी मजबूरी भी है। जिसमें पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी के बाद भी शाह की अध्यक्ष पद पर दोबारा नियुक्ति हुई। मुमकिन है कि, विपक्ष के चौतरफा हमलों से घिरी भाजपा अपने नए अध्यक्ष के साथ इतनी सहज स्थिति में ना होती।

शाह का यह कार्यकाल शुरु से आखिर तक चुनौतियों से भरा होगा। इस साल अप्रैल में होने वाले विधानसभा चुनावों से लेकर 2019 के लोकसभा चुनावों तक शाह को लगातार कठिन सियासी अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा। साथ ही आज के इस नये राजनीतिक परिदृश्य में जब समूचा विपक्ष एक सुर मे भाजपा पर हमलावार है और प्रधानमंत्री मोदी की चमक भी कम हो चुकी है। तब, नेताओं को संगठन के प्रति निष्ठावान बनाये रखना शाह की प्रमुख चुनौती होगी।

शाह की संगठन क्षमता और चुनावी रणनीति की कामयाबी की एक बड़ी वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि और लोकप्रियता भी रही है। लेकिन दिल्ली और बिहार में मोदी की छवि और धुआंधार आक्रामक प्रचार भी भाजपा को नहीं बचा सका। अब जबकि दिल्ली और बिहार की हार के साथ मोदी की अजेयता समाप्त हो गयी है और केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को लेकर भी किंतु परंतु हैं, तब शाह को नये सिरे से रणनीति बनानी होगी।

उनके सामने, इसी साल अप्रैल में होने वाले असम, प.बंगाल, तमिलनाडु, पुद्दुचेरी और केरल के चुनावों में भाजपा को जीताने की चुनौती होगी। असम में भाजपा सरकार बनाने के लिए चुनावी तैयारियां कर रही है। लेकिन प. बंगाल, केरल और तमिलनाडु में पार्टी की स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है।

शाह की अगली चुनौती 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड और गोवा के विधानसभा चुनावों की है। पंजाब में अकाली भाजपा गठबंधन सरकार के खिलाफ जबर्दस्त सत्ता विरोधी लहर है जबकि उत्तराखंड में भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से है जहां कांग्रेस ने नीचे तक खुद को मजबूत किया है। वहीं भाजपा में अभी भी शीर्ष स्तर पर गुटबाजी चरम पर है गोआ में भाजपा की सरकार है लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पारिकर के केंद्र में रक्षा मंत्री बन जाने के बाद भाजपा के सामने उनके समकक्ष चेहरा खोजने की चुनौती है।

लोकसभा चुनावों में अपने सहयोगी दलों के साथ राज्य की 73 सीटें जीतकर रातोरात भाजपा और मोदी के चाणक्य बने शाह के सामने विधानसभा चुनावों में सपा, बसपा और कांग्रेस का मुकाबला करने की कठिन चुनौती है। पार्टी के सामने राज्य स्तर पर न सिर्फ संगठन को दुरुस्त करने की चुनौती है, बल्कि राज्य में कोई ऐसा चेहरा भी नहीं है जिसे अखिलेश यादव और बसपा नेता मायावती के सामने मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश कर सके। राज्य के सामाजिक और जातीय समीकरण साधना भी आसान नहीं है।

मार्च 2017 के बाद शाह के सामने अगली चुनौती मोदी और शाह के गृह राज्य गुजरात के चुनाव में होगी जो वर्ष के आखिर दिसंबर में होंगे। मोदी के दिल्ली आने के बाद आनंदी बेन सरकार के राज में गुजरात में भाजपा गंभीर संकट से गुजर रही है। पटेल आंदोलन से उपजी नाराजगी ने भाजपा के मूल जनाधार पटेलों में जबर्दस्त असंतोष पैदा किया है।

2018 मई में कर्नाटक और नवंबर-दिसंबर में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव भी होंगे। कनार्टक में सत्ता वापसी और अन्य तीन राज्यों में अपनी सरकारें बचाना भाजपा केलिए आसान नहीं है। 2018 के चुनावों के बाद अप्रैल-मई में 2019 के लोकसभा चुनाव आ जाएंगे, जो शाह के कार्यकाल के अंतिम वर्ष में होंगे। तब केंद्र में दोबारा वापसी की जिम्मेदारी भी उनके कंधों पर ही होगी।

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