कपिल काजल
बेंगलुरु, कर्नाटक
एक करोड़ से अधिक की आबादी वाला शहर बेंगलुरु प्रति दिन 6,000 टन से अधिक कचरा पैदा करता है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि हर साल तकरीबन 20 लाख टन शहर से निकलता है। यह कचरा
बृहद बेंगलुरु महानगर पालिक (बीबीएमपी) के ऑटो और टीपर इस कचरे को नियमित तौर पर लोगों के घरों से एकत्रित करते हैं। इस तरह से शहर के लोगों के घरों से तो कचरा बाहर चला जाता है। लेकिन पड़ोस के ही ग्रामीण
इसमें मंडूर, मावलीपुरा, बेलाहल्ल गांव शामिल है, शहर के कचरे की दुर्गंध में रहने को मजबूर है।
मंडूर गाँव की निवासी सिलावली एन आज भी याद करते हुए बताते हैं कि 2007 से पहले तक उनका गांव बहुत ही बेहद सुंदर था। तभी बीबीएपी ने उनके गांव की खाली और गहरी जमीन को समतल करने के लिए कचरा डालने के लिए चुना
बस वह दिन और आज का दिन वह हर रोज इस कचरे की दुर्गंध में रहने को मजबूर है।
उन्होंने बताया कि हर रोज सैकड़ों ट्रक कचरा भर कर यहां खाली होते हैं। इससे न सिर्फ यहां बदबू भरा माहौल बन रहा है, बल्कि यह कचरा क्षेत्र में बीमारियों फैलने की वजह भी बन रहा है।
हालांकि
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने सिफारिश की थी कि कचरे को बंजर जमीन में डाला जाए।इतना ही नहीं यह भी कहा था यह जगह लोगों के संपर्क से दूर होनी चाहिए। ताकि कोई भी स्थानीय नागरिक कचरे के संपर्क में न आए। इसके विपरीत हो यह रहा है कि कचरे यहां न सिर्फ काफी जगह पर फैल गया है, बल्कि बीमारी फैलाने वाले वायरस,
मक्खियां, मच्छर जोक की भरमार हो रही है।कचरे से यहां हर वक्त आग लगने का अंदेशा भी बना रहता है। यदि आग लग जाती है तो यहां भारी मात्रा में ग्रीन हाउस गैस वातावरण में मिल सकती है। जिससे वायु प्रदूषण भी होगा।
कचरा डालने के लिए तय मापदंड है। इसके लिए कई दिशानिर्देश दिए गए हैं। लेकिन इसका पालन यहां होता नजर नहीं आ रहा है। उदाहरण के लिए एक खाली जगह चाहिए, जिसे कचरे से भरा जा सके। इसके लिए जगह ही पहचान कर उस क्षेत्र को कचरे के लिए प्रयोग किया जाना होता है। इसके लिए
कचरे के लिए निर्धारित से कम से कम 500 मीटर जमीन होने चाहिए। इसके चारो ओर दीवार होनी चाहिए। जगह की पहचान होने के बाद इस क्षेत्र को पूरी तरह से अलग कर एक संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए।
आरक्षित क्षेत्र के आस पास क्योंकि मीथेन गैस बहुत ज्यादा होती है, इसलिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को इस क्षेत्र के पर्यावरण की चिंता थी। उनकी चिंता की वजह
मीथेन गैस है। जीवाणुओं से यह गैस बनती है। कचरा क्षेत्र इस तरह के जीवाणुओं बड़ी संख्या में पनप सकते हैं। क्योंकि यहां उन्हें भारी मात्रा में नमी मिलेगी, जिससे उनकी संख्या बहुत तेजी से बढ़ जाएगी। उतनी ही तेजी से यहां मीथेन गैस भी बनेगी। यह भी हो सकता है कि यहां मीथेन का स्तर 50 प्रतिशत तक पहुंच जाए।
इतना ही नहीं 2014 में कर्नाटक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (केएसपीसीबी) ने भी बीगीएमपी के कचरा डालने वाले स्थल को लेकर कहा था कि इस वजह से स्थानीय लोगों को दुर्गंध के साथ साथ कचरे पर पलने वाले पक्षियों से खासी दिक्कत आ रही है।
बोर्ड ने तब बीबीएमपी को निर्देश दिया था कि अब आगे जब कचरा डालने की जगह को चिहिंत करेंगे तो इस तरह की चीजों का ध्यान रखे। स्थानीय लोगों की परेशानी और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के निर्देशों की ओर बीबीएम ने कोई ध्यान नहीं दिया।
विश्व बैंक के एक अध्ययन में कहा गया है कि 90% से अधिक कचरे को खुले में डाल दिया जाता है या फिर जला दिया जाता है। भारत भी इसका अप वाद नहीं है।अवैज्ञानिक तरीके से कचरे को निपटाने का यह तरीका स्वास्थ्य, सुरक्षा और पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा बन रहा है।इसके साथ ही यहां बीमारियां फैलाने वाले जीवाणु को पनपने के लिए पर्याप्त माहौल मिल जाता है। इससे भारी मात्रा में मिथेन मीथेन गैस पैदा होती है, जो वायु प्रदूषण की वजह बनती है।
कचरा क्योंकि सही तरह से निपटाया नहीं गया। इस वजह से असमाजिक तत्व कचरे में डाले गए कांच, बोतल, लकड़ी के डंडों का इस्तेमाल मारपीट के लिए कर सकते हैं। कचरे में पड़े
रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर आदि से वह सड़क रोक सकते हैं। देखा जाए तो कचरा शहर में हिंसा को बढ़ावा देने की एक बड़ी वजह भी बन सकता है।
बैंगलोर विश्वविद्यालय,पर्यावरण विज्ञान विभाग के अध्यक्ष और प्रोफेसर,
नंदिनी एन, ने कहा कि कचरा स्थल पर बड़ी तेजी से सूक्ष्मजीव पनप जाते हैं। ऐसी जगह पर वायरस, बैक्टीरिया, फफूंदी तेजी से पैदा होती है। जो जो संक्रमण जैसी बीमारियों को जन्म दे सकते हैं। इससे अस्थमा, एलर्जी कैंसर जैसी बीमारी भी हो सकती है।
जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कहा कि अस्पताल और स्वास्थ्य सेवाओं से निकलने वाले कचरे के निपटारे के लिए यदि सही तरीका नहीं अपनाया जाता तो कई समस्या हो सकती है। यह कचरा स्वास्थ्य सेवाओं में लगे कर्मी, कचरे को बाहर ले जाने वाले श्रमिक और नागरिकों में संक्रमण का खतरा पैदा कर सकता है।
इसलिए जरूरी है कि इस कचरे का निपटारा बहुत ही सही तरीके से करना चाहिए। इसके लिए अलग अलग कचरा डालने के पात्र होने चाहिए। इस कचरे को अलग अलग ही ले जाना चाहिए। इसके बाद इसे सही तरीके से ही खत्म करना चाहिए। लेक साइड केंद्र फॉर हेल्थ प्रमोट के बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर एच. परमीश ने बताया कि कचरा स्थल पर मिथेन, नाइट्रोजन, कार्बन, और डाइऑक्सिन गैस और प्रदूषण को बढ़ावा देने वाले तत्व मौजूद है। यदि कोई लगातार इनके संपर्क में आता है तो उसे सांस संबंधी रोग
अस्थमा, प्रजनन और विकास संबंधी दिक्कत त्वचा और मूत्राशय के कैंसर की संभावना बढ़ जाती है। डब्ल्यूएचओ के एक अध्ययन में कहा गया है कि कचरे को कम करना, अलग अलग करना, इसका सही से निपटारा करना, कचरे से दोबारा प्रयोग करने की चीजे अलग करना औरकचरे को दोबारा इस्तेमाल के तरीके तलाशने की रणनीति बनानीहोगी।एेसा करना संभव है, ठोस कचरे को खत्म करने की तकनीक विकासशील शहरों में आम है।
इसके लिए हमें शहरों से कचरे को इकट्ठा करने के तरीके को सुधारना होगा, कचरे का निपटारा और प्रबंधन के लिए कारगर तरीके से काम करना होगा। यदि ऐसा करने में हम सफल रहते हैं तो इससे न सिर्फ पर्यावरण साफ सुथरा होगा, बल्कि स्वास्थ्य में भी सुधार होगा। पशुओं के गोबर और ठोस कचरे से बायोगैस या बायो-मीथेन तैयार हो सकती है। जो खाना पकाने, किसी जगह को गर्म करने के लिए या बिजली उत्पादन में ईंधन की तरह इस्तेमाल हो सकती है। इकोलॉजिकल सिक्योरिटी ऑफ इंडिया के गवर्निंग काउंसिल मेंबर
डॉक्टर येलपा रेड्डी, ने बताया कि इस सबके अलग असली समस्या यह है कि हम कचरा ज्यादा पैदा करे ही क्यों? क्यों न कचरा कम से कम पैदा किया जाए। रोजमर्रा की दिनचर्या में प्लास्टिक और ऐसी चीजों का कम इस्तेमाल किया जाए, जो गल नहीं सकती। कंपनियों को भी चाहिए कि वह अपने उत्पादों को इस तरह से पैकिंग करे कि इसका पैकेट जल्दी ही गलनशील
उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कचरे को अलग अलग करने के जो निर्देश दिए है, नागरिक सेवा प्रदान करने वाले निकायों को चाहिए कि वह इसी तरह से कचरे को अलग अलग करें।
(कपिल काजल बेंगलुरु के स्वतंत्र पत्रकार है, वह 101Reporters.comअखिल भारतीय ग्रासरुट रिपोर्टस नेटवर्क के सदस्य है।