देश की राजनीति को ‘समाजवाद’ का मन्त्र देने वाले डॉ० राम मनोहर लोहिया(ram manohar lohia) का आज ही के दिन साल 1967 में निधन हो गया था, जिसके तहत गुरुवार को उनका 50वां परिनिर्वाण दिवस मनाया गया। इस दौरान पूरे प्रदेश में कई तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया गया था। आइये, डॉ० राम मनोहर लोहिया के जीवन सफ़र एक नजर डालते हैं।
शुरूआती जीवन(ram manohar lohia):
- राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1890 को अकबरपुर (फैजाबाद, उत्तरप्रदेश) में हुआ था,
- उनके व्यक्तित्व निर्माण में घर के राष्ट्रवादी वातावरण का और संस्कृत की शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान था।
- उनकी मां की मृत्यु तभी हो गयी थी जब वे बच्चे ही थे, लेकिन स्नेह उन्हें मिला दादी का और स्वयं पिता का।
- पिता हीरालालजी गांधीजी के भारतीय राजनीति में प्रवेश करने पर उनसे सबसे पहले प्रभावित होने वाले व्यक्त्तियों में से थे।
- 1899 में जब वे नौ साल के थे, तभी हीरालाल जी उन्हें पहली बार गांधीजी के पास ले गये थे।
- मां थी नहीं और पिता गांधी के चेलों में शामिल होकर असहयोगी बन गये थे।
- अतः लोहिया किशोरावस्था में सर्वथा स्वतंत्र रहे और छात्रावासों में रह कर पढ़ाई करते रहे।
- प्राथमिक शिक्षा के बाद लोहिया ने बंबई, बनारस और कलकत्ता में पढ़ाई की।
- इस बीच पिता के साथ वे दो बार कांग्रेस के अधिवेशनों में भी हो आये थे।
कलकत्ते में रहने वाला स्वतंत्रबुद्धि युवक(ram manohar lohia):
- बी.ए. की पढ़ाई के लिए जो युवक कलकत्ते गया, वह असाधारण प्रतिभाशाली, लेकिन स्वतंत्रबुद्धि का था,
- जो केवल आंतरिक अनुशासन को स्वीकार करता था, बाह्य अनुशासन को नहीं।
- लोहिया में आजीवन यह विशेषता रही।
- जिस नियम को उनके विवेक ने स्वीकार नहीं किया, दुनिया की कोई शक्ति फिर उनसे उस नियम का पालन नहीं करा सकी।
- वे पढ़ने के शौकीन थे, यह अध्ययन जानकारी बढ़ाने के लिए होता था।
- साहित्य हो या समाजशास्त्र, शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिसका अध्ययन लोहिया ने न किया हो।
- अन्तिम दिनों में अस्पताल में दाखिल होने के बाद भी ऑपरेशन के पहले वे बीसवीं सदी के यूरोपीय तानाशाहों के बारे में एक पुस्तक पढ़ रहे थे, जो वे पूरी नहीं पढ़ सके।
- बी.ए. करने तक राष्ट्रवाद का प्रभाव उन पर इतना पड़ चुका था कि,
- जब विदेश में शिक्षा ग्रहण करने का सवाल उठा, तो वे एक पल भी भूल नहीं पाये कि वे एक गुलाम देश के निवासी हैं।
- अतः इंग्लेंड के स्थान पर उन्होंने बर्लिन के हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और शोध प्रबंध का विषय भी चुना “नमक सत्याग्रह”
- उनके शोध-प्रबंध का शीर्षक था “धरती का नमक”।
- उनके निर्देशक थे उस काल के प्रख्यात अर्थशास्त्री बर्नर जोम्बार्ट।
- प्रो. जोम्बार्ट टूटी-फूटी अंगरेजी ही जानते थे, इस तथ्य ने जहां राममनोहर लोहिया को तत्काल जर्मन सीखने को प्रेरित किया,
- वहीं हमेशा के लिए एक और सबक भी उन्होंने सीख लिया ज्ञान के लिए किसी खास भाषा पर अधिकार जरुरी नहीं है।
मातृभाषा ही ज्ञान और अभिव्यक्ति का सबसे अच्छा माध्यम(ram manohar lohia):
- अपनी मातृभाषा ही ज्ञान और अभिव्यक्ति का सबसे अच्छा माध्यम हो सकती है।
- बर्लिन में दाखिला लेने के फैसले के पीछे शायद एक और भी कारण था।
- संस्कृत साहित्य का स्वेच्छा से अध्ययन करने के फलस्वरुप लोहिया ने न केवल देश की सांस्कृतिक विरासत से परिचय प्राप्त किया,
- वरन् एक सभ्यता के रुप में हिन्दुस्तान के इतिहास को नजदीक से देखा।
- भारतीय दर्शन ने ही उन्हें सिखाया – कांचन मुक्ती।
- नचिकेता को यम ने कंचन और कामिनी से मुक्त होने की सलाह दी थी।
- कांचन मुक्ति को उन्होंने खुले मन से स्वीकारा।
- कपड़े और बिस्तर के अलावा उन्होंने संपत्ति के नाम पर कुछ भी अपने पास नहीं रखा।
- कभी बैंक में खाता भी नहीं खोला।
- किताबें उनके पास बहुत थीं, लेकिन किताबों का संग्रह भी उन्होंने नहीं किया।
- पढ़ने के बाद या तो किताबें दोस्तों के पास रह जातीं या पार्टी दफ्तरों में, या उन पत्रिकाओं के दफ्तरों में जिनसे लोहिया समय समय पर संबंधित रहे।
- खुद अपनी ही सारी किताबों की एक- एक प्रति भी उनके पास नहीं थीं।
- 1963 में लोकसभा का सदस्य चुने जाने पर उन्हें सरकारी मकान रहने के लिए किराये पर मिला।
- इसके पहले उनका अपना कोई पता भी न था।
- पार्टी के दफ्तर या दोस्तों के घर, यही उनके पते थे।
- यह दृष्टिकोण किशोरावस्था में ही बन गया था।
- व्यक्त्तित्व के इन पहलुओं के साथ ही, लोहिया के मूलभूत बौद्धिक दृष्टिकोण के तीन मुख्य पक्ष थे – मानवीयता, तर्कबुद्धि और संकल्प।
- लेकिन अगर इन तीनों को नजदीक से देखें तो ये घुल-मिल कर एक हो जाते हैं-मनुष्य की आंतरिक शक्ति।
- वही शक्ति दूसरे मनुष्यों के संदर्भ में मानवीय करूणा और ममता बन जाती है, और बाह्य परिस्थितियों के साथ अपने संबंधों के संदर्भ में विचार के स्तर पर तर्क बुद्धि और कार्य के स्तर पर संकल्प।
- लोहिया के बौद्धिक व्यक्त्तित्व के केंद्र में मनुष्य है- सारी दुनिया में साढ़े तीन अरब मनुष्य, अपनी जिन्दगी से जूझता हुआ कोई भी अकेला, कमजोर आदमी, जाति, धर्म, वर्ग, राष्ट्र, कबीलों और सभ्यताओं में बंटा हुआ, उनसे शक्ति पाता और उनके बोझ ढ़ोता हुआ आदमी।
- जर्मनी में खोज- कार्य करते हुए लोहिया ने अपनी आँखों के सामने नाजीवाद का उदय देखा।
- उसके हाथों साम्यवाद और समाजवाद को पराजित होते देखा और वह इस नतीजे पर पहुँचे कि नाजीवाद और साम्यवाद बुरे सिद्धांत हैं,
- लेकिन उनमें संकल्प शक्ति है।
- समाजवाद अच्छा सिद्धांत है, लेकिन उसमें संकल्प शक्ति नहीं है।
- संकल्प शक्ति वाला समाजवाद, यह उनका वैचारिक लक्ष्य बना।
- लोहिया के विदेश जाने के पहले ही भारत में साम्यवादी दल की स्थापना हो चुकी थी।
- भारतीय बुद्धिजीवियों पर और क्रांतिकारियों पर भी रूसी क्रांति का काफी गहरा असर पड़ रहा था।
- लेकिन तब तक भारतीय साम्यवादी राष्ट्रीय अंदोलन से कटे हुए स्वयं अपने ही नेतृत्व में क्रांति करने के सपने देख रहे थे।
- गांधी जी के प्रभाव के कारण और राष्ट्रवादी आंदोलन से साम्यवादियों के कटे रहने के कारण, लोहिया को साम्यवाद ने आकर्शित नहीं किया।
- लोहिया जर्मनी में ही थे तो गांधीजी का प्रसिद्ध डंडी मार्च हुआ,
- फिर धरसाना का ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह, जिसमें बेहोश हो जाने तक बिना पीछे कदम हटाये मार खाने वालों में लोहिया के पिता हीरालालजी भी थे।
- सारे देश में असंतोष की लहरें उठ रहीं थीं।
लीग ऑफ़ नेशंस के कार्यक्रम से बाहर किये गए(ram manohar lohia):
- उन्हीं दिनों जेनेवा में राष्ट्रसंघ लीग आफ नेशंस की बैठक हुई तो लोहिया भी वहाँ पहुँचे,
- जब भारतीय प्रतिनिधि के रुप में बीकानेर केमहाराजा गंगासिंह बोलने को खड़े हुए तो लोहिया ने दर्शक दीर्घा से जोर की सीटी बजायी और व्यंगभरी आवाजें कसी।
- कुछ देर भवन में हलचल हुई, फिर पहरेदारों ने लोहिया को वहां से हटा दिया,
- लेकिन उस घटना के बहाने हिन्दुस्तान की आजादी का सवाल एक बार फिर यूरोप के अखबारों में उठा।
- जर्मनी में प्रवासी भारतीय राष्ट्रवादियों के संगठन में भी लोहिया ने सक्रिय भाग लिया था और इस सिलसिले में साम्यवादियों से उनका टकराव भी हुआ था।
- क्योंकि साम्यवादी चाहते थे प्रवासी भारतीयों का संगठन सीधे उनके प्रभाव में रहे और गांधीजी व राष्ट्रवादियों का विरोध करे।
- लोहिया ने ऐसा नहीं होने दिया, लेकिन गांधीजी से मतभेद रखने वाले भारतीय क्राँतिकारियों के प्रति भी लोहिया के मन में बड़ा आदर था।
- उन्हीं दिनों सरदार भगत सिंह को फांसी हुई थी,
- संयोग देखिये कि फांसी हुई भी 23 मार्च को, लोहिया के जन्म दिन पर।
- उसके बाद फिर कभी लोहिया ने अपने जन्म दिन पर कोई खुशी नहीं मनायी, कोई समारोह नहीं किया।
लेखक: अंशुमान सिंहट्विटर: @RajaAnshuman
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