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विपक्ष को समेट रही है बीजेपी की सियासी सर्जिकल स्ट्राईक!

भारतीय जनता पार्टी लगातार विपक्षी खेमे में सियासी सर्जिकल स्ट्राईक कर रही है.एक के बाद एक विरोधी दलों के खेमे से सिपाहसालार तोड़े जा रहे हैं. पहले बिहार फिर गुजरात औऱ उसके बाद उत्तर प्रदेश में अमित शाह के कदम पड़ते ही बीएसपी औऱ समाजवादी पार्टी मे टूट शुरु हो गई. समाजवादी पार्टी के दो औऱ बीएसपी के एक एमएलसी ने पद से इस्तीफा दे दिया. आज तीनों ने विधिवत बीजेपी ज्वाईन भी कर ली. लेकिन सवाल यह कि क्या यह टूट शाह के दौरे के साथ समाप्त हो गई है. या फिर अमित शाह विरोधी दलों में टूट का श्री गणेश कर वापस चले गये है औऱ बाकी का काम बीजेपी करती रहेगी.तो क्या अमित शाह का मकसद सिर्फ अपने मुख्यमत्री औऱ दो उप मुख्यमत्रियों के लिये सदन की सदस्यता का इतंजाम करना भर था या फिर मंजिल इसके आगे कहीं औऱ है.गैर भाजपाई नेता नीतीश कुमार की टूट को भले ही किसी लिहाज से देखते हो लेकिन राजनैतिक विश्लेषक इस बात को मानते है कि नीतीश कुमार को अपने पाले मे खींच कर मोदी औऱ शाह की जोड़ी ने महागठबंधन को नेताविहीन कर दिया क्योंकि नीतीश उस संभावित महागठबंधन के सबसे बड़े नेता के तौर पर उभर रहे थे.तो क्या यही फार्मूला यूपी में भी आजमाने की तैयारी शुरु हो गई है .चुनाव से पहले ही दर्जनों नेता और मंत्री अपनी अपनी पार्टियां छोडकर बीजेपी मे शामिल हो चुके थे जिसकी वजह से विपक्ष पहले ही कमजोर था. अब यूपी में संभावित महागठबंधन को आकार ले उससे पहले ही विपक्षी दलों में तोड़फोड़ शुरु हो गई है. विपक्ष जो पहले से ही कमजोर है वह एक होकर फिर से कोई नई ताकत बन कर उभरे उससे पहले ही उसे कमजोर करने की कोशिश बीजेपी के रणनीतिकार कर रहे हैं.पूरी दुनिया में राजनीति में इस तरह का परिवर्तन देखने को मिला है जहा सत्ताधारी ताकतें विपक्ष को इतना सीमित कर रही है कि वह दिखता तो लेकिन दरअसल वह शक्तिविहीन हो जाता है. इतना कमजोर कि सरकार के सामने आवाज तक नही निकाल पाता है.लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है. यह मान्यता रही है कि हरे भरे पेड़ों पर ही परिंदे आशियाना बनाते है..सूखे पेड़ों पर घोसले नही बनाये जाते है. भारतीय राजनीति का इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि चुनाव से पहले जिनदलों में नेताओं का बहार बढ़ने लगे जानकार समझ जाते है कि उस दल की स्थिति मजबूत है. कुछ विश्लेषक यह भी सवाल उठाते है कि पसंद औऱ नापसंद किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत अधिकार है औऱ लोकतंत्र मे यह अधिकार सबको है कि वह अपनी पंसद से काम करे..ऐसे मे कोई नेता या विधायक क्यो सवालो के घेरे मे आता है जब वह अपनी नापसंद का कोई दल छोडकर अपनी पसंद के किसी दूसरे दल मे चला जाता है. जिस तरह किसी इंसान के जीवन औऱ विचारो मे परिवर्तन होता है उसी तरह नेताओं के विचार भी बदल सकते हैं औऱ राजनीति में इस तरह की कवायद कोई नई नही हैं. .मायावती की सरकार गिराकर कल्याण सिंह सरकार में शामिल होने के लिये मंत्रियों और विधायकों के एक बड़े दल को टूटते हुये देखा गया.

क्या विपक्ष जिम्मेदार नहीं इसके लिए

इतिहास बताता है कि .. आजादी के बाद भारत की राजनीति में दल-बदल की ऐसी कई मिसालें हमारे सामने हैं, जिनसे इस अधिकार की सिर्फ पुष्टि ही नहीं हुई है बल्कि हमारा लोकतंत्र भी परिपक्व हुआ है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी यानी राजाजी और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व संगठन भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी अपने समय में देश के शीर्ष राजनेताओं में शुमार किए जाते थे। वे लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़े रहे। राजाजी को तो कांग्रेस ने ही देश का प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल बनाया तथा बाद में मद्रास प्रांत का मुख्यमंत्री भी. डॉ. मुखर्जी भी आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की सरकार में मंत्री थे. लेकिन दोनों ही नेताओं को वैचारिक मतभेदों के चलते बाद में कांग्रेस से अलग होना पड़ा. राजाजी ने कांग्रेस से अलग होकर स्वतंत्र पार्टी का गठन किया और डॉ. मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद से भारतीय जनसंघ की स्थापना कर ली.तो अब सवाल यह कि ..

क्या विपक्ष खुद अपनी इस हालत के लिये जिम्मेदार नही हैं?

बिहार गुजरात और अब उत्तर प्रदेश मे गैर भाजपाई दलों के विधायकों औऱ नेताओं के इस्तीफे औऱ उनका बीजेपी मे शामिल होना इस बात का संकेत नही कि विपक्ष अपने नेताओ को रोकने में नाकामयाब रहा है…इस देश मे केजरीवाल..अन्ना..नीतीश कुमार..मोदी जैसे नेता जमीन से निकल औऱ भ्रष्टाचार विरोधी अभियान पर सवार होकर आगे बढ़ गये औऱ खनन..भूमाफिया..कोलगेट जैसे तमाम भ्रष्टाचार के आरोपो से घिरी सपा , बसपा औऱ कांग्रेस जैसी पार्टिया रसातल मे चली गई..तो इन हालात के लिये जिम्मेदार कौन था..पार्टी का शीर्ष नेतृत्व या फिर आम विधायक और कार्यकर्ताWriter:Manas SrivastavaAssociate EditorBharat Samachar

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