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तुम उन्हें रोक तो नहीं सकते: एक लम्बी दास्तान की पहली क़िस्त

हां, ये बिलकुल तय है कि तुम उन्हें रोक नहीं सकते… यह कलम, यही मानते हुए ही लिख रहा है की तुम उन्हें नहीं रोक सकते… वाकई नहीं रोक सकते तुम… क्योंकि न तो अब तुम प्रजा हो (मुग़ल-काल की) और न ही गुलाम (अंग्रेजों के), तुम तो पिछले 70 बरस से नागरिक हो एक लोकतान्त्रिक देश के… कोई क्या बन गया है और कैसे बन गया है, कैसे रोक सकते हो तुम उसका वह बनना… वो जिसे चाहे पूजे, जिसकी इबादत करे, जिसकी चाहे मदद करे, जिसे चाहे बेवकूफ बनाये… मानने या न मानने का अधिकार तो तुम्हारे पास भी है… जब तुमसे तुम्हारा अधिकार नहीं छीना जा रहा है तो तुम कैसे उनका ये अधिकार ले लोगे?

उसने अगर अपराध किया है और वह लोगों की नज़र में आ गया है, अदालत तक पहुँच गया है, उसके गुनाह साबित हो गए हैं तो उसे सज़ा भी होगी, यह तो तुमने अपने संविधान में पहले ही निश्चित कर चुके हो. अब तुम बात ही गलत धारा पर कर रहे हो. तुम्हें तो सवाल करना चाहिए कि कल आसाराम को जो सज़ा सुनाही गयी वह रोज़मर्रा होने वाले ऐसे ही फैसलों जैसी क्यों नहीं थी? आखिर अपना फैसला लेकर कोर्ट को जेल के अंदर क्यों जाना पड़ा? जोधपुर के अम्नो-अमान को देखते हुए एहतियात के तौर पर धारा-144 क्यों लगनी पड़ी?

लेकिन ऐसा हुआ है तभी तो ये कलम कह रहा है की तुम उन्हें नहीं रोक सकते. पर तुम ये सवाल इसलिए नहीं कर रहे हो क्योंकि तुम्हें मालूम है कि खुद तुमने, तुम्हारी सियासत ने, तुम्हारे लोभ ने ही उन्हें वह ताकत दी है जो मदमस्ती में जब-तब तुम्हारी बेटियों, बहनों और माताओं के गिरेबान तक पहुँच जाती है. कभी-कभी तो तुम भी यह कहकर टूट पड़ते हो कि जब साधू, साधू नहीं है तो हम क्यों बे-वजह साधू बने हुए हैं.

तुम जानते हो कि जिस समाज के बीच तुम अपने लिए एक बेहतर जीवन तलाश कर रहे हो, एक वैचारिक खुलापन तलाश कर रहे हो, उस समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग शोषित है, अशिक्षित है, भूखा है, बे-आसरा है, डरा हुआ है, उसे भूत ही भूत नहीं लगता, वर्तमान भी भूत लगता है और भविष्य भी भूत लगता है. ऐसे हालात में वो जैसे-तैसे जी रहा है. तुम्हारे बंगले, मोटर, गाड़िया देखकर, तुम्हारे फूल जैसे बच्चों को देखकर, तुम्हारे तन पर कीमती कपडे देखकर वह भी तुम्हारी जैसी सुख-सुविधा के ख्वाब देखने लगता है. अन्यथा तो ये ख्वाब भी उसके नहीं थे.

वह भी तुम जैसा उजला-उजला दिखने की चाहत में तुम्हारे रास्तों पर चलने लगता है. तुम्हारे रस्ते पर चलते हुए वह या तो किसी पार्टी का झंडा थामकर या किसी आश्रम के समागम का हिस्सा बनकर दिल्ली, अहमदाबाद, कलकत्ता और मुंबई जैसे महानगरों और बड़े शहरों तक आ जाता है. दमड़ी नहीं जेब में तो क्या हुआ, आश्रम तो है, खाने की गारंटी तो है, और फिर बाबा का करिश्मा…

उसे याद है तुम्हारी हालत जब तुम पैदल-पैदल उसके पुरवे में आते थे, धूलभरी टायर-सोल की चप्पल पहन कर, लेकिन बातें बड़ी-बड़ी करते थे. फिर तुम सायकिल से आने लगे, फिर मोटर-सायकिल, फिर तुम बरसों नहीं आये, फिर तुम्हरी फोटो देखी उसने, अपने शहर के चौराहे पर, जब वो राशन-कार्ड बनाने के लिए चक्कर लगा रहा था. फिर तुमको उसने चमकती कार में देखा जब तुम उसके यहाँ वोट मांगने आये थे. तुमने उसे पहचान लिया था और बस इतना सर्टिफिकेट बहुत था उसके लिए, उसने तुम्हीं को वोट दिया.

फिर जब वो महानगर आया तो देखा तुम प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, उद्द्योगपति और लाट-साहब हो चुके हो. उस दिन जब तुम बाबा के आश्रम में माइक पर बोल रहे थे,“मेरे जैसे सार्वजनिक जीवन में कार्य करने वाले लोग… वे आसाराम जी बापू जैसे संतों का आशीर्वाद प्राप्त करके ही वो कुछ कर पाते हैं जो वो कर रहे हैं”,तो तुम्हारी बातें सुनकर उस दिन उसकी नज़र में तुम बहुत छोटे हो गए थे, बाबा के लिए उसके मन में श्रद्धा हिलोरें मारने लगी थी. तुम तो अपने भारी सुरक्षा बंदो-बस्त का दिखावा करके और बाबा का महिमा-मंडान करके कुछ ही मिनटों में चले गए लेकिन वह आश्रम में ही रह गया, उसने सोचा जो तुम्हें देश का उप-प्रधानमंत्री बना सकता है, उसके चरणों में ही उसका भी उद्धार लिखा है, बस बाबा की कृपा हो जाए.

अब वकालत हो रही कि पाकिस्तान की परिभाषा फिर से लिखी जाए

ये बाबा का दरबार है. ये बाबा के दरबारी हैं. ये बाबा के दरबारियों के दरबारी हैं, फिर उनके भी दरबारी जो तीसरी परत आते-आते भक्त कहलाने लगते हैं. अब वोह भी इनमें शामिल हो गया है. सब बाबा के प्रचारक है अब इन्हें अपने जैसे अज्ञानियों के पास जाना है, उनके दुखों और तकलीफों को उम्मीद की ताकत देनी है. कैंसर का इलाज, बाबा, नौकरी की चाहत, बाबा. बेटी का विवाह, बाबा. आर्थिक संपन्नता, बाबा. क्या नहीं है उस बाबा के पास जो उस जैसी ही मामूली धोती लपेटे एक बड़े से स्टेज पर, राधे-राधे के संगीत पर ठुमक रहा है. कितना सादा-आचरण है उसका, उसे इस दुनिया से कुछ नहीं चाहिए, वह तो रम गया है, राधे-राधे में… जय हो बाबा की.

अब वह सीख गया है शहर से गाँव और गाँव से शहर आना-जाना. उसका काम है बाबा की महिमा करना और अपने जैसों को बाबा के दर्शन कराना. वह अब अज्ञान को लाता है और परम-अज्ञान में मिला देता है. यही तो परिभाषा है परमानंद की, यही तो है जीवन का उद्देश्य, उपनिषद की वाणी, गीता का सार.

उसे अभी बस इतना ही करना है, कि वह लोगों को बताये कि बाबा की कृपा में आकर कैसे उसके दुःख छूटे हैं. बाकी काम वो बाबा, वो मौलवी, वो ज्योतिष वो भविष्यवक्ता कर देंगे, जो अपने भक्तों की ही तरह मामूली और ज़रुरत भर के कपडे पहनते हैं, वैसी ही भाषा बोलते हैं. वह अज्ञानता का मनोविज्ञान जानते हैं क्योंकि वे परम-अज्ञानी हैं.

जारी………

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