यह दास्तान उन बाबाओं के मनो-विज्ञान को समझने की दास्तान नहीं, जो अपने अनुयायियों की मजबूरियों से, उनकी संवेदनाओं से, उनके भोलेपन से खेलते हैं. यह तो उन लोगों का मनो-विज्ञान समझने की एक कोशिश है जो किसी बाबा के जाल में फंसते हैं. यानी यह हमारी और आपकी दास्तान है.
एक लम्बी दास्तान की पहली क़िस्त
आइये.. आपको ले चलते हैं एक कस्बे में. इस कस्बे का नाम है, मकनपुर. मकनपुर में एक भव्य दरगाह है. जिसे लोग ‘जिन्दा-शाह मदार’ की दरगाह कहते हैं. इस दरगाह को औरंगजेब ने बनवाया था. दरगाह की वजह से इसे यहाँ के लोग सिर्फ मकनपुर नहीं कहते बल्कि नाम के साथ ‘शरीफ’ शब्द जोड़ते हैं, मकनपुर-शरीफ. यहाँ के काफी परिवार खुद को मदार साहब का वंशज मानते हैं. पीरी-मुरीदी यहाँ का सबसे स्थायी कारोबार है. पूरे साल श्रद्धालु यहाँ आते हैं और वार्षिक उर्स के समय तो लाखों श्रद्धालु इस धरती पर माथा टेकते हैं.
लेखक बचपन से इस कस्बे को देख रहा है, क्योंकि यह उसका ननिहाल है. बचपन से पचपन के बीच यह क़स्बा बहुत बदल गया है, व्यावसायिक हो गया है. 4-5 साल पहले की घटना है. लेखक एक उर्स के दौरान वहां पहुंचा. बड़े ज़माने के बाद वह यहाँ आया था. अपने दोस्तों के साथ वह मेला देखने निकला.
उसे अपना बचपन का एक दोस्त नहीं दिखाई दिया तो उसने साथ चल रहे दूसरे दोस्त से पुछा. यार ये तकबीर अहमद कहाँ है, दिखाई नहीं दिया. दोस्त ने बड़ी अर्थपूर्ण मुस्कान के साथ मुझे देखा और पूछा, मिलोगे तकबीर से? मैंने हाँ में सर हिलाया तो वह भीड़ चीरता हुआ मुझे एक जगह पर ले आया. यहाँ लोग घेरा बनाये कुछ देख रहे थे, जैसे मदारी के खेल में होता है. घेरे के बीच में एक आदमी, लम्बी दाढ़ी, हरी तहमद और हरे कुरते में काला साफा बांधे दर्शकों को संबोधित कर रहा था.
मैं अचानक तो नहीं पहचान पाया मगर तकबीर को पहचानना इतना भी मुश्किल नहीं था. वह हाथ में कोई चीज़ लिए लगातार बोलता जा रहा था. यह कोई मामूली नग नहीं, मदार साहब के रौजे से छुलकर इनमें इतनी ताकत पैदा हो गयी है कि हर बिगड़ी तकदीर संवर जाए. मुझे समझते देर नहीं लगी कि मेरा दोस्त किस प्रपंच में फंस चुका है. लेकिन वह तो बेफिक्र अपने कारोबार में व्यस्त था, उसने मुझे देखा भी नहीं. तभी वह चक्कर लगाता कुछ इस तरह से मेरे करीब आया कि उसकी पीठ मेरी तरफ थी.
वह कारोबार कर रहा था:
मैंने एक ज़ोर की चपत उसे लगाई, वह चौंका और ग़ुस्से में पलटा, कि किसने उसके साथ ये भद्दा काम किया है. उसकी आँखें मुझसे चार हुईं, मैंने हैरत से पूछा, अबे तू ये क्या कर रहा है?… लेकिन उसके भाव में कोई परिवर्तन नहीं आया. उसने उसी आत्मविश्वास के साथ मेरे सामने अपनी मुट्ठी खोल दी. उसकी हथेली पर बेहद मामूली नग (जो कहीं भी मिल जाते हैं जैसे गोमेद, फिरोजा आदि) रखे हुए थे.
उसने उतनी ही तेज़ आवाज में, लगभग ललकारते हुए कहा, ले! तू भी उठा ले, और बना ले अपनी किस्मत. सच मानिए तो मैं इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं था. मैं हडबडा गया और निरुत्तर खड़ा रहा. मुझे अभी भी याद हैं उसकी वह मुस्कुराती आँखें कि कैसे उसने मेरी हडबडाहट और स्तब्ध रह जाने का मज़ा लिया था.
वह कारोबार कर रहा था. उसने अपनी चपत के जवाब में अपने आत्मविश्वास का वह घूँसा मुझे मारा था कि मैं तिलमिला उठा. लेकिन वह इससे बेपरवाह भीड़ में लहराते किसी नोट की तरफ लपक चुका था और मैं खिसयाया हुआ उलटे पैर उस घेरे से निकल आया. कुछ घंटों बाद मेले से वापसी हो रही थी. सारे दोस्त रास्ते में अपने-अपने घरों के नज़दीक मुझसे विदा होते रहे और एक वक़्त ऐसा आया जब मैं गली में अकेला अपने घर की तरफ बढ़ रहा था. तकबीर का चेहरा, उसकी मुस्कराहट, उसका गेट-अप मुझे बार-बार चिढ़ा रहा था. मुझे अफसोस था, उसकी इस हालत पर पहुँचने का, जहाँ वो लोगों को बेवकूफ बना रहा था चंद पैसों के लिए.
तुम उन्हें रोक तो नहीं सकते: एक लम्बी दास्तान की पहली क़िस्त
मेरे ज्यादातर दोस्त श्रद्धा के इसी कारोबार से जुड़े हुए थे. मैं यह भी जानता था कि मकनपुर में रहने और ज़िन्दगी बसर करने के दो ही तरीके हैं. या तो यहाँ लोग खेती-किसानी करते हैं या फिर वह दरगाह से जुड़े कारोबार का हिस्सा बन जाते हैं. मेरे कई दोस्त ऐसे हैं, कुछ पीर बन गए हैं, किसी ने चाय का होटल खोल लिया है, किसी ने दरगाह में चढ़ाई जाने वाली चादरों का, फूलों का कारोबार कर लिया है, लेकिन तकबीर जो कर रहा था वह मेरे लिए चार-सौ-बीसी से कम न था.
मैं इसी रंज में गिरफ़्तार चला जा रहा था कि तभी किसी ने पीछे से मेरे गले में अपनी बाहें डाल दीं. और मुझे समझते देर न लगी कि यह तकबीर ही है. मेरा गुस्सा झट से सातवें आसमान पर पहुँच गया. मैंने पलटते ही जो कुछ मुंह में आया बक दिया. वह मेरी हर गाली को बर्दाश्त करता रहा और मुस्कुराता रहा. मैंने कहा, तुझे शर्म नहीं आती इस तरह की चालबाजी करते हुए… मुझे तो शर्म आ रही है कि मेरा दोस्त… अबे जीना अगर इतना ही दूभर है तो मर क्यों नहीं जाता… तू भोले-भाले लोगों को बेवकूफ बना रहा है… मेरी इस बात पर उसने अपनी ख़ामोशी तोड़ी. मेरी आँखों में सीधे देखते हुए उसने कहा… नाजिम मैं इन्हें बेवकूफ बना नहीं रहा हूँ… ये बेवक़ूफ़ हैं…
शायद तकबीर सही कह रहा था, वो बेवकूफ हैं, और सिर्फ वो ही क्यों, हम सब बेवकूफ हैं. शायद ये बवकूफ शब्द भी ठीक नहीं, दरअस्ल हममें आत्म-विशवास की कमी है. अगर हमारे पास बहुत पैसा आ गया है तो उसमें हमें अपनी काबलियत कम, और किसी टोने-टुटके का, किसी प्रार्थना का, किसी उपाय का ज्यादा हाथ लगता है. अगर हम गरीब हैं, तब तो आत्म-विशवास की बात करना ही बेमानी हो जाती है. कहते हैं कि शरीर कमज़ोर हो तो तरह-तरह की बीमारियों घेर लेती हैं. बिलकुल इसी तरह आत्म-विश्वास की कमी हो तो आस्था एक रोग बनकर चिपट जाती है.
तकबीर तो इस आस्था के कारोबार का एक बहुत ही छोटा सा प्यादा है… अब ये दास्तान शुरू हुई है तो आपको इस पूरे चक्र की नुमाईश कराते हैं. अगली क़िस्त में कुछ और पड़ताल करेंगे.
जारी…..