यूपी में एक तरफ मुसलमान ‘गैंगस्टर’ है मुख्तार अंसारी तो दूसरी तरफ हिंदू ‘गैंगस्टर’ है ब्रजेश सिंह। दोनों में कई बार गोलीबारी हो चुकी है। एक के डर से दूसरा जेल में रहता है। दूसरा पहले के डर से उड़ीसा भाग गया था। पूर्वांचल यूपी का वो एरिया है जहां पर मुसलमानों की संख्या बाकी जगहों की तुलना में ज्यादा ही है. पर गैंगवार का ये मुकाबला कभी सांप्रदायिक नहीं हुआ है। ये विशुद्ध माफिया स्टाइल है। जिसकी कोई जाति, कोई धर्म नहीं होता. गोलियां गिनी नहीं जातीं, निशाने लगाए नहीं जाते। ये गैंगस्टर हैं, उन्मादी दंगाई नहीं. नाप-तौल के बोलते हैं. बोलते वक्त मुस्कुराते हैं. उर्दू और हिंदी जबान बड़े सलीके से बोलते हैं। मुंह पर कभी किसी को नहीं धमकाते। पर हनक इतनी कि आप सामने खड़े न रहे पाएं, घबरा के मैदान छोड़ दें। आप के मन का यही डर इनको ये गेम खेलने को मजबूर करता है. इससे ज्यादा मजा किस खेल में आएगा।
इसी खेल का एक खिलाड़ी है ब्रजेश सिंह :
20 साल तक यूपी पुलिस के पास ब्रजेश का एक फोटो तक नहीं था. ये सिर्फ ददुआ और दाऊद के केस में हुआ है कि कहीं झूठी-सच्ची एक फोटो मिल गई, उसी को हर जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर फ्लैश किया जाता है. तो ब्रजेश के सिर पर इनाम 2 लाख से बढ़ाकर 5 लाख रुपए कर दिया गया. लेकिन किसी को नहीं पता था कि वो अरुण कुमार सिंह के नाम से भुवनेश्वर में रहता था.
ब्रजेश सिंह :
जनवरी 2008 में संजीव को पता चला कि ब्रजेश भुवनेश्वर और कोलकाता के बीच अप-डाउन करता है. नई फोटो भी मिल गई पर डर भी था कि कहीं कोई और न निकल जाए। गोली वगैरह चल गई, कोई मर गया तो पुलिस वालों की नौकरी गई। अपराधी भी हाथ से निकल भागेगा। 23 जनवरी को भुवनेश्वर के बिग बाजार की पार्किंग में काले रंग की हॉन्डा CRV OR-O2-AK-1800 खड़ी थी. ब्रजेश सिंह को दूर से ही आइडेंटिफाई किया गया. जब इत्मिनान हो गया तो पुलिस ने धावा बोल दिया. पर ‘गैंगस्टर’ को पकड़ना आसान नहीं था. दूसरे लोगों के लिए खतरा हो गया. पर अंत में वो पकड़ लिया गया. ब्रजेश के पास से अरुण नाम से पासपोर्ट मिला था.
बाप के हत्यारे के बाप को पैर छूकर मारा था ब्रजेश ने :
ब्रजेश सिंह एक एवरेज लड़का हुआ करता था. बनारस से बीएससी कर रहा था. 1984 में इंटर की परीक्षा में ब्रजेश के बढ़िया नंबर आए थे. गाजीपुर के धरौरा से था. गाजीपुर वालों के लिए सब कुछ बनारस में ही मिलता है. खाली गुंडई की ट्रेनिंग छोड़ के. वो गाजीपुर में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है. रोज अखबार पढ़ने वाले भी खुद को माइकल कॉर्लियोन समझते हैं जिसे जिले की हत्याओं और हत्यारों के नाम याद होते हैं, वो गंभीर हो जाता है दैनिक जीवन में. आप मार्केट में उसके साथ निकले हैं, वो दुकान पर खुद के लिए पान लेगा. छुट्टे पैसों से आपके लिए टॉफी ले लेगा. क्योंकि आप तो कोई नशा नहीं करते हैं.
बनारस में मोदी की रैली
ये 80 के दशक की बात है. बनारस में कांग्रेस कमजोर हो रही थी. भाजपा चढ़ रही थी. मंदिर का मुद्दा उठ रहा था. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं. पंजाब में आतंकवाद हो रहा था. अफगानिस्तान में रूस घुस आया था. पाकिस्तान का सहारा लेकर अमेरिका फिदायीनों को ट्रेन कर रहा था. अटल बिहारी वाजपेयी अपनी आइडियॉलजी में गांधी को लेकर आ चुके थे. उसी वक्त गाजीपुर में ब्रजेश के पिता रविंद्रनाथ सिंह की हत्या कर दी गई. प्रधानी के चुनाव और जमीन की रंजिश में सिंचाई विभाग के कर्मचारी रवींद्र सिंह की दिनदहाड़े चाकू मारकर हत्या कर दी गई. आरोप लगा हरिहर सिंह और पांचू सिंह, लातूर सिंह उर्फ ओम प्रकाश ठाकुर और नरेंद्र सिंह पर. ग्राम प्रधान रघुनाथ यादव और कुख्यात पांचू गिरोह पर भी आरोप था.
सियासी सरपरस्ती में पल रहे पांचू गिरोह पर हाथ डाल पाना पुलिस के लिए लगभग नामुमकिन था. ब्रजेश ने पढ़ाई छोड़ दी. ये वो वक्त था जब जनता सब कुछ ऊपर वाले के हाथ में छोड़ा करती थी. क्योंकि कोई सिस्टम ही नहीं था कि दिक्कत होने पर आप किसके पास जाएंगे? पढ़ाई ऐसी थी नहीं कि आपको विचारक बना दे. आप अपराध के खिलाफ जंग छेड़ दें. गांधी बन जाएं. नितांत अकेले और बनारस-गाजीपुर करते-करते काफी संभावना थी कि आपके अपने लोग ही आपको बहका दें कि खून का बदला खून से नहीं लिया तो मर्द कैसा.
ब्रजेश के साथ यही हुआ :
माफिया ब्रजेश सिंह और पांचू का घर अगल बगल है. दुश्मनी के बावजूद दोनों में रिश्तों का लिहाज था. बदले की आग में जल रहा ब्रजेश एक दिन पांचू के पिता हरिहर सिंह के पास पहुंचा. उनके पांव छुए. उनको शाल भेंट की और बताया जाता है कि ये कहते हुए उन्हें गोलियों से भून दिया कि मुझे पिता के कत्ल का बदला लेना है. ये साल 1985 था. उस वक्त तक पांचू गिरोह और रघुनाथ यादव को अंदाजा भी नहीं था कि उनके एक अपराध ने कितने खूंखार इंसान को जन्म दिया है.
गाजीपुर में मुलायम की नवंबर रैली :
पुलिस के मुताबिक, फिर उसने कचहरी में धौरहरा के ग्राम प्रधान रघुनाथ को भी सरेआम गोलियों से भून दिया. ये पूर्वांचल की पहली घटना थी, जब कत्ल में एके47 का इस्तेमाल हुआ था. इसके बाद प्रशासन सक्रिय हुआ. गैंगवार रोकने की कोशिश की जाने लगी. इसी में एक एनकाउंटर हुआ जिसमें नामी बदमाश पांचू भी मारा गया. इसके बाद और हत्याएं हुईं. 1985 में ही बनारस के चौबेपुर पुलिस थाने के सिकरौरा गांव में 6 लोगों को मार दिया गया था. उस गैंगवार में ब्रजेश को भी गोली लग गई थी. इस बार वो पकड़ा गया. पुलिस कस्टडी में वो अस्पताल में भर्ती रहा. और वहीं से भाग निकला. उसके बाद हाथ नहीं आया.
दाऊद इब्राहिम :
फिर इस रास्ते से वापस लौटना नामुमकिन था. उस एरिया में ब्रजेश को कथित तौर पर कई हत्याएं करनी पड़ीं, ‘सरवाइव’ करने के लिए. बताया जाता है कि इसके साथ हत्याओं से जुड़े कारोबार में भी ब्रजेश का हाथ हो गया. रेलवे स्क्रैप के ठेके, शराब, कोयला, प्रॉपर्टी के बाजार में वो आ गया.
इसी दौरान ब्रजेश की मुलाकात गाजीपुर के मुडियार गांव में त्रिभुवन सिंह से हुई. बताया जाता है कि त्रिभुवन के राजनैतिक-आपराधिक संपर्क अच्छे थे. दोनों साथ हो गए. इसी दौरान एक और गैंग उभर रहा था. त्रिभुवन सिंह के पिता के हत्यारोपी मकनू सिंह और साधु सिंह का गैंग. त्रिभुवन सिंह का भाई हेड कॉन्स्टेबल राजेंद्र सिंह वाराणसी पुलिस लाइन में तैनात था. रिपोर्ट के मुताबिक अक्टूबर 1988 में साधू सिंह ने कांस्टेबल राजेंद्र को मार दिया. इस हत्या के इस मामले में कैंट थाने पर साधू सिंह के अलावा मुख़्तार अंसारी को भी नामजद किया गया था.
हसीना पार्कर :
इसके बाद साधू जेल में रहने लगा था. उसे मारना आसान नहीं था. पर एक मौका मिला. साधु सिंह पुलिस कस्टडी में अस्पताल पहुंचे थे. अपनी बीवी और नवजात बच्चे को देखने. पुलिस के मुताबिक ब्रजेश ने उनको वहीं मार गिराया. उस वक्त ब्रजेश पुलिस यूनिफॉर्म में पहुंचा था. उसी दिन साधु सिंह के भाई और मां समेत 8 लोगों को उनके गांव मुदियार में ही मार दिया गया. इस गैंगवार में मुदियार गांव के 21 लोग घायल हुए थे.
जून 1992 में गुजरात के मेहसाणा में ब्रजेश ने कथित तौर पर त्रिभुवन सिंह और हरिया के साथ मिलकर रघुनाथ यादव (दूसरा) को बस स्टैंड पर मार दिया. रघुनाथ अपने घर का अकेला इंसान था. उस वक्त सब-इंस्पेक्टर झाला ने ब्रजेश को पकड़ने की कोशिश की थी. पर पुलिस के अनुसार ब्रजेश ने उनको भी गोली मार दी. झाला पैरालाइज्ड हो गए.
ब्रजेश ने बढ़ाया अपना नेटवर्क :
ब्रजेश सिंह धीरे-धीरे अपना नेटवर्क बढ़ाने लगा. बिहार, झारखंड से लेकर गुजरात, महाराष्ट्र तक अपना जाल बिछा दिया. कोल माफिया सूरजदेव सिंह हो या बिहार का माफिया सूरजभान, हर कोई ब्रजेश से जुड़ गया. माना जाता है कि इसी दौरान ब्रजेश ने छोटा राजन के सबसे करीबी माने जाने वाले अंडरवर्ल्ड डॉन सुभाष ठाकुर से हाथ मिला लिया. सुभाष दाऊद का नजदीकी था.
आरोप है कि दाऊद के कहने पर ब्रजेश ने मुंबई में दिनदहाड़े जेजे हॉस्पिटल शूटआउट को अंजाम दिया. जेजे अस्पताल में अरुण गवली गिरोह का हल्दंकर भी मारा गया. क्योंकि ब्रजेश ग्रुप का ऐसा मानना था कि दाऊद इब्राहिम की बहन हसीना पारकर के पति की हत्या में यही शामिल था. इसी शूटआउट में एक सब-इंस्पेक्टर और दो कॉन्स्टेबल भी मारे गए. ब्रजेश उस वक्त दाऊद इब्राहिम का शॉर्प शूटर माना जाता था. बेहद नजदीकी और प्यारा.
मुंबई धमाके के बाद दाउद और सुभाष ठाकुर अलग हो गए. तब बनारस के गैंगवार में भी एक तरफ दाउद तो दूसरी तरफ सुभाष ठाकुर का दखल दिखने लगा. फिर तो ब्रजेश ने धनबाद की कोइलरी से लेकर उड़ीसा की खदानों तक में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया. गिरोह चलाने के लिए चाहिए था पैसा, लिहाजा दोनों ही माफियाओं में पैसे कमाने की होड़ मच गई. शराब, खनन और रंगदारी टैक्स की वसूली के लिए भी ये गिरोह आपस में टकराने लगे.
ब्रजेश और मुख्तार :
दोनों माफियाओं की शुरुआत दोस्ती से हुई थी. इन सारी घटनाओं से पहले सैदपुर में एक प्लॉट को हासिल करने के लिए गैंगस्टर साहिब सिंह के नेतृत्व वाले गिरोह का एक दूसरे गिरोह के साथ जमकर झगड़ा हुआ था. ये इस इलाके में गैंगवार की शुरुआत थी. ब्रजेश सिंह साहिब सिंह से जुड़ा हुआ था. इसी क्रम में उसने 1990 में गाजीपुर जिले के तमाम सरकारी ठेकों पर कब्जा करना शुरू कर दिया. अपने काम को बनाए रखने के लिए बाहुबली मुख्तार अंसारी का इस गिरोह से सामना हुआ.
एक वक्त पर मऊ से विधायक मुख्तार अंसारी ब्रजेश का दोस्त हुआ करता था. पर कई ऐसे काम हो गए जिसमें एक-दूसरे से पूछा तक नहीं गया. बनारस के पिंडरा से पूर्व विधायक अजय राय के भाई अवधेश राय की हत्या 1991 में हो गई थी. इसमें मुख्तार ग्रुप का नाम आया था. ये लोग ब्रजेश के नजदीकी थे. इसी के बाद ब्रजेश से मुख्तार की तल्खी बढ़ गई. इसके अलावा ब्रजेश के नजदीकी त्रिभुवन और मुख्तार शुरू से ही एक-दूसरे के जानी दुश्मन थे. बस यहीं से शुरू हो गई मुख्तार और ब्रजेश की गैंगवार. एक के बाद एक कर लाशें गिरने लगीं.
मुख्तार अंसारी :
फिल्मी अंदाज में मुख्तार पर हमला हुआः ब्रजेश ने मुख्तार को कम आंक लिया था. 1996 में मुख्तार अंसारी पहली बार विधान सभा के लिए चुने गए. उसके बाद से ही उन्होंने ब्रजेश सिंह की सत्ता को हिलाना शुरू कर दिया. मुख्तार का दबदबा पुलिस और राजनीति में भी था. पुलिस ब्रजेश को परेशान करने लगी. साथ ही इनके नजदीकी लोगों पर हमला भी होने लगा. इनके एक करीबी अजय खलनायक पर भी हमला हुआ. इससे ये लोग बौखला गये. बड़े-बड़े प्लान बनने लगे कि मुख्तार को ही मार दिया जाए।
जुलाई 2001 में गाजीपुर के उसरी चट्टी में मुख्तार अंसारी अपने काफिले के साथ जा रहा था. प्लान के मुताबिक एक कार और एक ट्रक से मुख्तार की गाड़ी को आगे-पीछे से घेरने की कोशिश की गई. लेकिन रेलवे फाटक बंद हो जाने के चलते हमलावरों की एक गाड़ी पीछे रह गई. अब ट्रक आगे था. और मुख्तार की गाड़ी पीछे. हमले की दूसरी कार रेलवे फाटक के पार थी. तभी ट्रक का दरवाजा खुला. दो लड़के हाथ में बड़ी-बड़ी बंदूकें लिए खड़े थे.
दनादन फायरिंग होने लगी. इनके पीछे भी कई हथियारबंद थे. मुख्तार किसी तरह गाड़ी से निकलकर गोलियां चलाते हुए खेतों की तरफ भागा. बताया जाता है कि उसने दो हमलावरों को मार भी गिराया. इस हमले में मुख्तार के तीन लोग मारे गए. ब्रजेश सिंह इस हमले में घायल हो गया था. तभी उसके मारे जाने की अफवाह उड़ गई थी. इसके बाद बाहुबली मुख्तार अंसारी पूर्वांचल में अकेला गैंग लीडर बनकर उभरा.
कृष्णानंद राय :
अब ब्रजेश को भी राजनीतिक मदद चाहिए थी. कहते हैं कि भाजपा विधायक कृष्णानंद राय ने ये मदद दी. मुख्तार पीछा नहीं छोड़ रहा था. उस वक्त मुख्तार अंसारी जेल में बंद था. तभी एक खतरनाक घटना को अंजाम दिया गया. 2005 में गाजीपुर-बक्सर के बॉर्डर पर विधायक कृष्णानंद राय को उनके 6 अन्य साथियों के साथ सरेआम गोली मार कर हत्या कर दी गई. कहते हैं कि हमलावरों ने छह एके-47 राइफलों से 400 से ज्यादा गोलियां चलाई थीं.
मारे गए सातों लोगों के शरीर से 67 गोलियां बरामद की गईं. इस हमले का एक महत्वपूर्ण गवाह शशिकांत राय 2006 में रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत पाया गया था. उसने कृष्णानंद राय के काफिले पर हमला करने वालों में से अंसारी और बजरंगी के निशानेबाजों अंगद राय और गोरा राय को पहचान लिया था. राय हत्याकाण्ड में मुख्तार के शार्पशूटर मुन्ना बजरंगी की बेहद खास भूमिका मानी जाती है. बताया जाता है कि कृष्णानंद राय की हत्या के बाद ब्रजेश सिंह गाजीपुर-मऊ क्षेत्र से भाग निकला था.
ब्रजेश सिंह :
माफिया ब्रजेश के वापस आने के बाद खून एक बार फिर बहने लगाः 4 मई 2013 को ब्रजेश सिंह के बेहद खास कहे जाने वाले अजय खलनायक पर जानलेवा हमला हुआ. अजय खलनायक की गाड़ी में दर्जनों गोलियां दागी गई थीं. पुलिस के मुताबिक अजय खलनायक को कई गोलियां लगी थीं और उनकी पत्नी को भी एक गोली लगी थी. 3 जुलाई 2013 को इनके चचेरे भाई सतीश सिंह की बनारस के थाना चौबेपुर क्षेत्र में ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर हत्या कर दी गई.
सतीश वाराणसी के चौबेपुर में एक दुकान पर चाय पी रहा था. उसी वक्त बाइक पर सवार होकर वहां पहुंचे चार लोगों ने उस पर अंधाधुंध गोलियां बरसा दीं. जिसकी वजह से उसकी मौके पर ही मौत हो गई थी. हत्या की इस वारदात के बाद सभी को यह डर सताने लगा था कि फिर इन दोनों के बीच गैंगवार न शुरू हो जाए.
तेरहवीं में शामिल होने पैतृक गांव धौरहरा पहुंचे ब्रजेश सिंह घरवालों को देखकर रो पड़े. इस कांड से मुख्तार का नाम आने के साथ हट भी गया था. ब्रजेश ने कहा कि हत्याकांड से मुख्तार अंसारी का नाम हटाकर पुलिस ने उसका मान बढ़ा दिया है. कहा कि ‘अजय खलनायक पर हमले के बाद अगर पुलिस ने अपराधियों को गिरफ्तार कर लिया होता तो सतीश की हत्या न होती, लेकिन उसे कानून पर पूरा भरोसा है.
उम्मीद है पुलिस ही उसके परिवार को न्याय दिलाएगी’. ये इक्कीसवीं सदी की अद्भुत बात थी. दो दशक बाद पुलिस के हत्थे चढ़ने वाला कथित गैंगस्टर अपने परिवार के लिए पुलिस से न्याय की उम्मीद कर रहा था. इन बातों से भरोसा बना रहता है कि प्रशासन चाहे तो सबकी सुरक्षा कर सकता है.
मुन्ना बजरंगी :
ऐसा नहीं था कि ब्रजेश ग्रुप शांत बैठा हुआ था. मुख्तार अंसारी की हत्या के लिए भी एक बड़ी साजिश रची गई थी. जिसका खुलासा 2014 में हुआ था. कहा गया कि ब्रजेश सिंह ने अंसारी को मारने के लिए लंबू शर्मा को 6 करोड़ रुपए की सुपारी दी थी. ये खुलासा लंबू शर्मा की गिरफ्तारी के बाद हुआ था.
इस मामले को गंभीरता से लेते हुए जेल में अंसारी की सुरक्षा बढ़ा दी गई थी. सुपारी के खुलासे के बाद पूर्वांचल में यूपी पुलिस क्राइम ब्रांच और स्पेशल टास्क फोर्स ने अपनी सक्रियता बढ़ा दी थी. अभी भी पेशी पर या विधानसभा सत्र के लिए जाते समय मुख्तार की सुरक्षा बहुत कड़ी रखी जाती है.
मुख्तार की राजनीति है बेहद मजबूत :
बसपा प्रमुख मायावती ने एक बार मुख्तार अंसारी को रॉबिनहुड कहा था. उसे गरीबों का मसीहा भी कहा था. मुख्तार अंसारी ने जेल में रहते हुए बसपा के टिकट पर वाराणसी से 2009 का लोकसभा चुनाव लड़ा मगर वह भाजपा के मुरली मनोहर जोशी से 17,211 वोट से हार गया. उसे जोशी के 30.52% वोटों की तुलना में 27.94% वोट हासिल हुए थे.
मुख्तार अंसारी का पूरा परिवार क्षेत्र में होने वाली गरीबों की बेटियों की शादी के लिए दहेज का पूरा भुगतान करता है. एक कथित गैंगस्टर का लोगों के बीच यूं खैरात बांटना उसे वैधता देता है. यही वो जगहें हैं, जहां पर सरकार लोगों को फेल करती है और गैंगस्टर टेकओवर कर लेते हैं. गरीब को क्या पता कि जो पैसा गैंगस्टर दे रहा है, वो गरीब के हिस्से का ही पैसा है.
अंसारी को लेकर सपा में हुआ विवाद :
राजनीति तो देखिए कि सपा में अंसारी को शामिल करने को लेकर अखिलेश और शिवपाल में ठन गई. यहीं से शुरू हुआ झगड़ा कि सपा पर अखिलेश ने कब्जा जमा लिया. मुख्तार अंसारी अब बसपा में शामिल हो गये हैं. 2017 विधानसभा चुनाव में मऊ से लड़ेंगे. मायावती ने उनको शामिल करते हुए कहा कि उन पर कोई चार्ज अभी तक प्रूव तो नहीं हुआ है.
बनारस एमएलसी सीट पर सबसे पहले ब्रजेश के भाई उदयनाथ सिंह उर्फ चुलबुल सिंह ने भाजपा से कब्जा जमाया था. वो दो बार बने थे. ट्रिब्यून इंडिया की मानें तो चुलबुल भी अपराधी हुआ करते थे. उसके बाद पिछले चुनाव में ब्रजेश की पत्नी अन्नपूर्णा सिंह ने बसपा से जीत हासिल की थी. 2016 में खुद ब्रजेश ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में 3038 वोट पाकर जीत हासिल की. जानकारी के मुताबिक ब्रजेश ने अपनी प्रतिद्वंद्वी सपा की मीना सिंह को 1986 वोट से हराया.