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नोटबंदी: सोचेन तो ठीक रहेन मोदीजी, लेकिन लगत है गड़बड़ाई गवा!

8 नवंबर 2016 की तारीख शायद ही कभी कोई भुला सकेगा, बेशक नोटबंदी आज़ाद भारत के सबसे ‘बोल्ड’ फैसलों में से एक है। जैसा हमारा देश है ठीक वैसा ही हमारा संविधान- कठोर पर लचीला, यहाँ अमेरिका के प्रेसिडेंटियल सिस्टम की भी झलक है और ब्रिटेन के संसदीय प्रणाली की भी। अब ऐसे देश में जहाँ लोग पेट्रोल के प्रति लीटर 25 पैसे दाम बढ़ाने पर प्रधानमंत्री से इस्तीफ़ा मांग लेते हैं वहां करेंसी बदलने का फैसला लेना अपने आप में बहादुरी का काम है।

9 नवम्बर की सुबह मेरा ये समझ पाना मुश्किल हो रहा था कि लोग खुश क्यों हैं? नोटबंदी देशहित में है इसलिए या उनके किसी पड़ोसी या रिश्तेदार का पैसा डूब गया इसलिए। अफरा-तफरी के माहौल में लोग एक्सपर्ट कमेंट देने से बाज़ नहीं आ रहे थे, “मोदिया दिखा दिया आख़िर, काला धन ख़त्म अब”, “ई साले भाजपा वाले हमेशा अनुभवहीन रहेंगे, माहौल ये बनाएं और लाइन में हम लगें”, “का हो गुरु तहार कितना गइल?”, “ढेर पैसा डलबे त नोटिस पक्का हौ”, “बहिन जी के घरे फिर पोताई-रंगाई होइ”, “अखिलेशवा ललकरले बा गुरु”, “सपा त चुनावै न लड़ पायी”, ये वो दिन था जब भारत का हर व्यक्ति अर्थशाष्त्री बन गया था।

एक फैसले ने सभी 1000-500 की नोटों को रद्दी मात्र बना कर रख दिया था, मगर भारत भी जुगाड़ों का देश है, अगले दिन से ही ‘लूपहोल्स’ दिखने शुरू हो गए थे। कहीं लेबर चौराहा लेबर उठा कर बैंक की लाइनों में भेज दिए गए तो कहीं मैनेजर बाबू से दोस्ती ‘गहरी’ कर ली गयी, 1 हफ्ते भी नहीं बीते थे की करोड़ों की नयी करेंसी पकड़ी जाने लगी। हम तब भी हार नहीं मानें, एटीएम की लाइन में खड़ा आखिरी व्यक्ति भी पैसा ना मिलने पर यही बोलता था “समस्या तो है, पर देश के लिए कुछ भी”। किसी प्रधानमंत्री के लिए इतना बड़ा समर्थन शायद दशकों बाद देखा गया हो।

जनता को हो रही समस्या को समझते हुए मोदीजी ने 50 दिन का वक़्त माँगा, ये वो दिन जरूर हैं जब पूरा देश समझ गया था कि “जरुरत” और “चाहत” में फर्क क्या है। शादियों में रौनक थोड़ी फ़ीकी हुई, अस्पताल में मरीज़ को समस्या हुई, कुछ लोग जान भी गँवा बैठे, लेकिन मोदीजी आपके इस फैसले में पूरा देश आपके साथ रहा,

पर आज जब एक महीने से ज्यादा बीत चुका है तो कुछ सवाल जरूर मन में उठते हैं:

नोटबंदी बेशक काबिल-ऐ-तारीफ कदम था, हम तब भी इसके पक्ष में थे और आज भी हैं, पर क्या कार्यान्वयन में कमी नहीं रह गयी? अगर अर्थशास्त्रियों की मानें तो यह समस्या अगले 6 महीने तक भी रह सकती है, तो क्या जनता इतने समय तक आपका साथ देगी? वो भी तब जब एक भी भ्रष्ट नेता का काला धन नहीं पकड़ा जा सका?

फ्लेक्सिबिलिटी के मामले में हम भारतीयों का कोई जोड़ नहीं है, किसी भी परिस्थिति में एडजस्ट होने में हमें ज्यादा वक़्त नहीं लगता, पर तकलीफ़ झेलें भी तो क्यों? जब धनकुबेर आसानी से पैसा सफ़ेद कर ले रहे हैं, जब बैंक के मैनेजर खुलेआम ‘फेयर एंड लवली’ स्कीम चला रहे हैं, चलिए मान लें कि 5 फीसदी लोगों का काला धन बर्बाद हो भी गया, तो फिर उसके लिए बाकी कतारों में क्यों लगें? और लगें भी तो कब तक?

शुरूआती हफ्ते में लोग जरूर कह रहे थे “Great step, Bad execution”, पर अगर 50 दिन बाद भी स्थिति सामान्य नहीं हुई तो जवाबदेही किसकी होगी? शहर समेत ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार में आयी कमी का जवाब कौन देगा? ये लेख फैसले के खिलाफ राजनीति करने के उद्देश्य से नहीं लिखा है, बस ये पूछना चाहता हूँ कि जब सभी भ्रष्ट नेता और उद्योगपति अपना पैसा एक झटके में सफ़ेद कर ले रहे हैं तो जनता के कतार में लगने का उद्देश्य आखिर क्या हुआ? अंत पान की दुकान पर सुने कुछ शब्दों के साथ करना चाहूंगा, “सोचेन तो ठीक रहेन मोदीजी, लेकिन लगत है गड़बड़ाई गवा”!

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