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सबको है पचास की आस- नाज़िम नक़वी

पहले चरण का मतदान ईवीएम मशीनों में क़ैद हो चुका है. पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के 15 जिलों की 73 सीटों में कौन किसकी झोली में गिरा ये तो 11 मार्च को पता चलेगा. लेकिन तब कोई भी दल खुद को हारा हुआ कैसे कह दे. इसलिए हर पार्टी को हवा का रुख अपनी तरफ रखना है.

सबसे पहले बसपा ने 50 सीटों पर अपना दावा ठोंका, तो गठबंधन ने भी ‘हम किसी से कम नहीं’ की तर्ज़ पर 50 सीटों पर अपना दावा ठोंक दिया. 71 सांसदों वाली सबसे बड़ी बटालियन, भाजपा, के लिए तो ये मुमकिन ही नहीं है कि वो 50 से कम किसी आंकड़े के बारे में सोचे. प्रदेश में अपने लिए 300 सीटों से कम सोचने का आधार ही उसके पास नहीं है. इसलिए उसका भी दावा 50 का है.

सारे दावे ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ के हैं. इसका सीधा सा मतलब है जिसे भी सरकार बनाना है, उसे पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की 73 सीटों में, कम से कम 50 सीटें लानी हैं. दो-तिहाई बहुमत की शुरुआत का ये पहला द्वार है. पहला चरण, पहला दावा.

पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के कुल 26 जिलों में 140 विधानसभा क्षेत्र हैं, जिनकी बाक़ी बची 67 सीटों पर 15 फ़रवरी को मतदान होना है. वैसे तो यहाँ की ज़मीनी हकीकत एक सी नहीं है और कई फैक्टर एक साथ काम कर रहे हैं लेकिन मोटे तौर पर अगर हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को पैमाना बनाया जाए तो इसका फायदा या तो भाजपा या फिर बसपा के हक में जाता हुआ दिखाई देता है. दोनों को लगता है कि ध्रुवीकरण उनके हक में नतीजे लाएगा.

2014 से लेकर अबतक, हर बार की तरह भाजपा, यहाँ भी नरेंद्र मोदी पर पूरी तरह आश्रित है, मोदी भी प्रदेश के उस एहसान को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते जो, उसने, 2014 में उनपर किया है. इसीलिए मोदी भी अपनी तरफ से कोई कोताही नहीं बरतना चाहते. फिर भी मुख्यमंत्री पड़ के किसी चेहरे के बगैर भाजपा द्वारा चुनाव की नय्या पार लगाना,

बसपा हमेशा से ज़मीनी जद्दो-जेहद वाली पार्टी रही है इसलिए मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद, इलाके की हर आहाट पर कान धरे है. यही वजह है कि उसने इलाके में 50 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है. ये सारे उम्मीदवार दलित-मुस्लिम जुगलबंदी के साथ अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं.

सपा और कोंग्रेस (गठ्बंधन) भाजपा-बसपा के इन्हीं समीकरणों के बीच से अपने लिए एक रास्ता बनती हुई दिखाई देती है. अखिलेश के चुनावी पैंतरों का हर तीर, भाजपा और बसपा के इस समीकरण को बिगाड़कर अपने लिए उस प्रतिशत को हासिल करना है जिसे जीत की गारंटी समझा जाय. इस खेल में उसका साथ दे रही है अपनी खोयी ज़मीन तलाश करती कांग्रेस.

मुस्लिम फैक्टर, जो यहाँ हर बात-चीत का आधार है, इन इलाकों में बड़ा निर्णायक माना जाता है जो 26% के आस-पास है. अगर ये अपनी सूझ-बूझ के साथ आगे बढ़ा तो नतीजों में निर्णायक भूमिका निभाएगा.

कुलमिलाकर, इस इलाके की एक-एक सीट पर हर पार्टी ने अपनी मजबूत व्यूह-रचना की है. देवबंद से बसपा ने अपना मुस्लिम कैंडिडेट माजिद अली के रूप में उतारा है. ध्यान रहे कि 2007 (मनोज चौधरी) और 2012 (राजेन्द्र सिंह राना), पिछले दोनों चुनावों में ये सीट बसपा की ही थी, मगर बदले समीकरणों में उसे माजिद अली ही जीत के दावेदार दिखाई दिए.

मज़े की बात ये है कि ये इलाका, चौधरी चरण सिंह की कर्मस्थली के रूप में जाना जाता रहा है, और यहाँ के जाट मतदाताओं में (हिन्दू-मुस्लिम दोनों) उनके लिए भरपूर सम्मान है फिर भी हैण्ड-पम्प यानी राष्ट्रीय लोकदल का कोई ज़िक्र ही नहीं है. इस ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ के खेल में उसका नामलेवा भी कोई नहीं है लेकिन इलाके के लोगों से पूछिए तो अजीत सिंह यहाँ से 10-15 सीटें ला सकते हैं. चूँकि ये गिनती, फिलहाल, सरकार बनाने या बिगड़ने में अपनी कोई भी भूमिका निभाती नहीं दिखती, इसलिए दावों की इस बहस में इनकी बात कोई नहीं कर रहा है.

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