8 नवंबर, 2016 की तारीख इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई है. 1946 और 1978 के बाद यह दूसरा मौका था जब भारत में पुराने नोटों को बंद करने का फैसला लिया गया. नोटबंदी के फैसले ने जहां आम जनता का हिसाब-किताब थोड़ा हिला दिया, वहीं जानकारों का मानना है कि इसने आने वाले कुछ महीनों में चुनावों में जा रहे राज्यों की राजनीतिक पार्टियों का गणित भी बिगाड़ दिया है.

बात अगर उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों के परिपेक्ष में करें तो, चुनाव आयोग ने भले ही विधानसभा चुनावों पर खर्च के लिए प्रति प्रत्याशी 28 लाख रुपए की सीमा तय कर रखी हो पर एक सच यह भी है कि चुनावों में पानी की तरह पैसा बहा सकने की क्षमता ही प्रत्याशी की काबिलियत और उसका नामांकन तय करती है. यूपी के चुनावों को देश के सबसे ‘महंगे’ चुनावों में गिना जाता है, ऐसे में माना जा रहा है कि नोटबंदी का असर इस बार के चुनावों पर साफ़ दिखेगा. हो सकता है कि 2017 चुनावों में वोटरों को लुभाने के लिए की जाने वाली ‘फिजूलखर्ची’ में कमी देखने को मिले.

राजनीतिक दलों में मची खलबली:

राजनीतिक पार्टियां चुनावों पर हुए अपने खर्च का ब्यौरा देने से हमेशा बचती नजऱ आती हैं, इसके पीछे की वजह होती है अवैध तरीकों से चुनावों पर खर्च के लिए इकट्टा की जाने वाली रकम. नोटबंदी के फैसले ने राजनीति के गलियारों में भी खलबली मचा दी है, जो इस फैसले के बाद सामने आए बयानों से साफ़ जाहिर होता है. यूपी में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का जहां कहना है कि केंद्र की एनडीए सरकार ने यूपी चुनावों के मद्देनजर जल्दबाज़ी में यह फैसला लिया है, वहीं करोड़ों रुपयों के बदले अपने प्रत्याशियों को टिकट देने के आरोप झेल रहीं बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती के मुताबिक़ बीजेपी ने अपना पैसा ‘ठिकाने’ लगाने के बाद यह फैसला लिया है.

बहनजी तो नोटबंदी के फैसले को ‘आर्थिक इमरजेंसी’ तक करार दे चुकी हैं. 2014 लोकसभा चुनावों में यूपी की 80 में से 71 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने अपनी चुनावी रैलियों में नोटबंदी को एनडीए सरकार के ‘गुडवर्क’ के तौर पर जनता के सामने रखना शुरू कर दिया है.

साम्प्रदायिकता फैलाने के आरोपों के चलते अक्सर विरोधी पार्टियों के निशाने पर रहने वाली बीजेपी, यूपी की जनता के बीच भ्रष्टाचार को लेकर ‘जीरो टॉलरेंस’ रखने वाले दल के तौर पर अगला विकल्प बनने की कोशिश कर रही है. जबकि दूसरी तरफ भ्रष्टाचार के आरोपियों को मंत्रिमंडल में शामिल करने वाली सपा पर ‘एंटी-इनकंबेंसी’ का खतरा तो मंडरा ही रहा है, साथ ही साथ उनपर यूपी की सत्ता में लगातार दो बार बने रहने का दबाव भी होगा क्योंकि बीते दो दशकों से ज्यादा वक्त से कोई भी दल ऐसा कर पाने में नाकाम रहा है.

भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते यूपी की सत्ता गंवाने वाली बसपा के लिए भी राह आसान नजऱ नहीं आ रही है. नोटबंदी का फैसला आने के बाद देश के अलग-अलग हिस्सों में हुए उप-चुनावों में बीजेपी को बड़ी कामयाबी मिली है. पार्टी का जनाधार बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में भी बढ़ा है, जिसने विपक्ष के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं. हालांकि, यूपी की राजनीति में जातिय और धार्मिक समीकरणों को नकारा नहीं जा सकता है पर नोटबंदी के फैसले ने इन्हें फिलहाल के लिए थोड़ा धुंधला ज़रूर किया है. आने वाले दिनों में देखना रोचक होगा कि क्या बैंक की कतारों में लगकर नोट बदलवाने वाली जनता चुनाव के दिन कतारों में खड़ी होकर यूपी की सत्ता बदलने का काम करती है या नहीं.

द्वारा:

अंकुर 

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