बीते बीस दिनों में देश की सियासत में दलितों के नाम पर और दलितों के द्वारा जो तूफ़ान खड़ा हुआ है वह चौंकाने वाला है. जो लोग इसे भाजपा या संघ के प्रति दलितों और पिछड़ों का आक्रोश समझ रहे हैं, वह या तो इसकी गंभीरता को नहीं समझ रहे हैं या फिर उनमें समझ ही नहीं है.
यह सच है कि इस आक्रोश का सबसे ज्यादा नुकसान वर्तमान सरकार को ही होगा, लेकिन इस आक्रोश में हर वह दल, हर वह नेता झुलस जाएगा जिसने इसपर सियासत करने की कोशिश की है या भविष्य में करेगा. वजह साफ़ है कि यह दलित आक्रोश किसी को संसद, विधायक या नेता बनाने के लिए नहीं उठा है. यह ड्रामाई आक्रोश नहीं है. दलितों पर अत्याचार के मामले बढ़ रहे हैं. पिछले दस साल के सरकारी आंकड़े इसके प्रत्यक्ष गवाह हैं. अगर इन अत्याचारों के अनुपात में वर्तमान विरोध को देखा जाए तो यह प्रतिरोध कहीं ज्यादा होना चाहिए था.
वर्तमान सरकार (केंद्र या उ.प्र. की हुकूमत) की बौखलाहट जायज़ है लेकिन जब वह इसे विपक्ष की चाल कहते हैं तो लगता है कि वह जानबूझ कर असली समस्या पर पर्दा डालना चाहते हैं. बीते बीस दिनों में दलितों के चार चेहरे, इटावा के अशोक दोहरे, राबर्ट्सगंज के छोटेलाल खरवार, नगीना के यशवंत सिंह और बहराइच की सावित्री बाई फूले,अपनी ही सरकार के विरोध में उतर आये हैं. यह वह नाम हैं जो खुलकर सरकार की आलोचना कर रहे हैं. इन सबका कहना है कि सरकार ने उनके समुदाय की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं. ये सब केंद्र और उत्तर-प्रदेश की राज्य सरकार पर दलितों के खिलाफ भेदभाव करने का इल्ज़ाम लगा रहे हैं.
यह सब पहली बार सांसद बने हैं. इनको तो भाजपा और मोदी का शुक्रगुजार होना चाहिए. इनकी कोई दुश्मनी न भाजपा से है न मोदी से मगर जिस समाज का यह प्रतिनिधित्व करते हैं उसके दबाव में इन्हें इस विरोध में उतरना पड़ रहा है. उदाहरण के लिए, यशवंत सिंह का पत्र देखिये जो बहुत कुछ कहने की कोशिश करता है. वह लिखते हैं कि “एक दलित होने के नाते, मेरी क्षमताओं का उपयोग नहीं किया गया है, मैं सिर्फ आरक्षण के कारण सांसद बन गया हूं”.
सवा सौ करोड़ के इस देश में पैंसठ प्रतिशत आबादी की उम्र 35 वर्ष के आस-पास है. यह युवा चाहता है कि जो इतिहास उसने पढ़ा है या जिस वर्तमान में वह रह रहा है, उससे बेहतर भविष्य की कल्पना वह करे. इस पैंसठ प्रतिशत का बड़ा भाग उन युवाओं का है जो दलित और आदिवासी हैं, जिनका एक तबका शिक्षित भी है और जागरूक भी. उसे अपने इतिहास का चेहरा कुरूप दिखाई देता है और वर्तमान में जब वह अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट जैसे फैसलों को देखता है तो क्रोध से फट पड़ता है. उसी की बानगी है यह वर्तमान विरोध.
दूसरी तरफ ऊँची-जाति की मानसिकता आज भी वही है. यही है वास्तविक मुठभेड़. इसे जितनी जल्दी समझा जाए उतना अच्छा ही होगा. आखिर 21वीं सदी में यह दलित और आदिवासी 12वीं और 13वीं सदी का बनकर कैसे रहेगा? लेकिन अगड़ा समाज चाहता है की वह वैसा ही रहे, उस पर चुटकुले हों, उसको गाली दें, अपने हिसाब से उससे मजदूरी कराएं, उसको पैसे दें या न दें, क्या यह सबकुछ आज संभव है? क्योंकि यह नौजवान भी अपडेट है. टेक्नोलॉजी ने उसे भी सूचनाओं से जोड़ दिया है. अब वो भी ऊँच-नीच जानता है.
सिर्फ सत्ता पक्ष ही नहीं. आज विपक्ष भी इस आक्रोश को देखकर बौखलाया हुआ है. क्योंकि दलित और आदिवासी मुद्दों को तो उसे ही ज़ोर-शोर से उठाना चाहिए था. अगर ऐसा होता तो इन्हें सड़क पर क्यों आना पड़ता. लेकिन विपक्ष भी तो दलित विरोधी है. वहां भी तो ब्राह्मण बैठा है, ठाकुर बैठा है या बनिया और कायस्थ बैठा है. कहीं कोई फर्क नहीं है चाहे भाजपा हो या आम आदमी पार्टी.
लेकिन देश की सियासत जो एक चीज़ नहीं समझ रही है वह है इतने बड़े पैमाने का सामुदायिक असंतोष. इस असंतोष को समझना होगा. क्योंकि यह असंतोष 30-32 करोड़ दलितों और आदिवासियों के बीच का असंतोष है. जो समाज के ताने-बाने को धाराशायी करने की कूवत रखतेहैं.
आज इस समुदाय के सामने न तो मायावती की कोई हैसियत है, न राहुल गांधी की और न ही मोदी या भाजपा की. अब यह अपनी अस्मिता के लिए नहीं, अपने अधिकारों के लिए लड़ रहा है. दिल्ली के इलेक्ट्रोनिक मीडिया में पिछले बीच साल से इक्विपमेंट सप्लाई करने वाले गौतम का सवाल है कि ‘यह मुद्दा इस देश के दलित के न्याय, अधिकारों और संविधान में किए गए वादों की गारंटी का मुद्दा है’. वो आगे कहते हैं, कहा तो ये गया था कि छुआ-छूत ख़त्म होगा, तो क्या वह ख़त्म हो गया? इसमें क्या भाजपा और क्या कांग्रेस और क्या सपा या बसपा. हर पार्टी अगड़ों की शाह पर चलने के लिए बाध्य है. इसमें हमारे लिए कहाँ कोई गुंजाईश है. ‘अब हम किसी पार्टी के लिए अपनी जान नहीं देंगे बल्कि उसकी गद्दी छीन लेंगे जो हमारी नहीं सुनेगा’.
क्या देश की राजनैतिक पार्टियों तक ये आवाज़ पहुँच रही है? क्योंकि सियासी नेता कोई सवाल उठा रहे हों, हमने तो नहीं देखा. ऊना की घटना हो या रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी, गऊ माता के नाम पर उनकी बेरहमी से पिटाई हो या आंबेडकर की मूर्तियाँ तोड़ने के मामले हों, कहीं कोई ज़ोरदार सरकारी फरमान आपने देखा? हाँ, घडियाली आंसू तो बहते हमने भी देखें हैं और आपने भी ज़रूर देख होंगे.