आज शाम साढ़े 6 बजे नागपुर के रेशमी बाग़ में भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुख़र्जी आरएसएस के दीक्षांत समारोह को संबोधित करेंगे. जब से प्रणव दा ने आरएसएस के आमंत्रण को अपनी सहमती दी थी तभी से देश की राजनीति में एक भूचाल सा आया हुआ था.
RSS कार्यक्रम में जाने पर सियासत:
कहा गया कि अपनी पूरी उम्र कांग्रेस की सियासत करने वाले और आरएसएस संगठन के धुर-विरोधी आखिर क्यों उनके दीक्षांत समारोह को संबोधित करने जा रहे हैं? कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि प्रणव दा जीवन भर जिस सियासी नज़रिए के साथ रहे उससे ही मुंह मोड़ते नज़र आ रहे हैं.
बहरहाल प्रणव मुख़र्जी के नागपुर जाने का विरोध करने वालों की लम्बी फेहरिस्त है और उनकी अपनी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी भी अब इसमें शामिल हो गयी हैं जो कांग्रेस पार्टी की स्थायी सदस्य भी है.
प्रणव दा के नागपुर जाने से ठीक पहले बुद्धवार को, शर्मिष्ठा ने ट्विटर पर प्रणव दा को टैग करते हुए उनके इस क़दम का विरोध कर डाला.
कांग्रेस के कद्दावर नेता:
देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुख़र्जी 82 वर्ष के हो चुके हैं. उन्होंने अपना पूरा जीवन भारतीय राजनीति में बिताया और पिछले करीब 55-60 वर्षों में देश की सियासत में आये अनेक अहम पडावों के वह चश्मदीद गवाह रहे हैं.
श्रीमती गांधी के बहुत करीब रहे प्रणव दा ने इमरजेंसी का समय भी देखा, वह राजीव युग की सियासत के भी गवाह रहे, नरसिम्हा राव सरकार के दिल्ली दरबार का अनुभव भी उनके पास है, अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के समय विपक्षी राजनीति के भी वह गवाह रहे हैं.
दरअस्ल प्रणव दा का यह कांग्रेसी-विरोध पिछले साल अक्टूबर माह में उनके द्वारा की गयी मोदी प्रशंसा के बाद से ही जारी था लेकिन चूँकि वह देश के राष्ट्रपति थे इसलिए इसपर ख़ामोशी की एक परत चढ़ी हुई थी.
उस समय प्रणव दा ने यह कहकर मोदी कीतारीफ की थी कि ‘उनमें बहुत मेहनत से काम करने की अद्वितीय क्षमता है’. उस समय एक न्यूज़ चैनल से बात करते हुए प्रणव दा ने यह भी कहा, ‘प्रधान मंत्री मोदी के पास दृष्टि की स्पष्टता है – वह जानतेहैं कि वह क्या हासिल करना चाहतेहैं और वह इसे प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं.
प्रणव मुख़र्जी के कार्यक्रम में शामिल होने के मायने:
लोगों ने प्रणव मुख़र्जी के इस बयान में सियासत देखी, लेकिन यह देखना भूल गए कि एक 82 वर्ष का राजनीतिज्ञ जिसने भारत के साथ-साथ विश्व के बड़े नेताओं के काम-काज को करीब से देखा है, वह मोदी की कार्यकुशलता की तारीफ अगर कर रहा है तो क्यों कर रहा है?
कुछ तो ऐसा होगा नरेंद्र मोदी में कि जिसने एक पुराने कांग्रेसी को भी आकर्षित कर लिया. हमारे आपके जीवन में भी कई बार ऐसा होता है कि हम अपने विरोधी की कार्यकुशलता से प्रभावित हो जाते हैं और बरबस उसकी तारीफ कर देते हैं.
प्रणव दा के बहाने हमारा इरादा मोदी चालीसा पढने का नहीं है. हम तो यह समझने और समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि हमने खुद को इस तरह खेमों में बाँट लिया है कि उसी खेमे में रहना ही अपना धर्म समझने लगे हैं.
इसके पीछे शायद लालच भरी दलबदल की राजनीति का भी दोष है जिसने कालांतर में सरकारों को गिराने और अपने हितों वाली सरकारें बनाने का काम किया है.
हम यह भी नहीं कह रहे हैं कि मोदी का हर क़दम सही ही होता है. वह देश की सत्ता चला रहे हैं, पिछले चार वर्षों में उन्होंने कई ऐसे फैसले किये हैं जिनकी वजह से देश बड़े मुश्किल दौर से गुज़रा.
लोगों के इस तर्क में भी दम दिखाई दिया कि उनमें देश के प्रशासन को समझने की क्षमता की कमी है. लेकिन वह मेहनती हैं, इस बात से कोई इंकार कैसे कर सकता है. उनकी इसी लगन और मेहनत पर प्रणव दा ने भी एक साल पहले अपनी मुहर लगायी थी.
आरएसएस में बुराई तो अच्छाई भी:
दलगत राजनीति में रहकर अच्छा और बुरा समझने की ताक़त भी शायद हम खो बैठे हैं. हमने यह समझना भी छोड़ दिया है कि समय और परिस्थितियों के साथ हर चीज़ एक बदलाव के दौर से गुज़रती है. देश के सामने खड़ी आपात स्थितियों में स्वयं-सेवकों ने जो रहत कार्य किए हैं क्या उनसे इंकार किया जा सकता है?
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संगठन एक विचारशील, अनुशासित और राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत संगठन है, क्या इससे भी इंकार किया जा सकता है? लेकिन हर संगठन की तरह उसमें भी अच्छाई और बुराई के तमाम तत्व मौजूद हैं.
विश्व के तमाम ऐसे संगठन जो एक विचारधार पर खड़े हैं उनमें आमतौर पर एक तरह की कट्टरता देखी जाती है. लेकिन आरएसएस ने समय के अनुरूप परिवर्तित होने की जो इच्क्षा-शक्ति दिखाई है उसकी तारीफ की जाए तो इसमें बुरा क्या है?
एक समय था जब आरएसएस देश के राष्ट्रीय ध्वज को नहीं मानती थी, देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और उनके नज़रिए से पल्ला झाडती थी. लेकिन समय के साथ उसने अपनी इस सोच में परिवर्तन किया.
यह परिवर्तन उसे भारतीय संविधान की आत्मा से उसके रिश्ते को और मज़बूत करता है. आज वह राष्ट्रीय-ध्वज और महात्मा गाँधी, दोनों का सम्मान करते नज़र आते हैं.
मानसिकता में परिवर्तन की जरूरत:
आरएसएस जैसे संगठनों को अछूत मानने वालों को भी अपनी मानसिकता में परिवर्तन लाना चाहिए. ऐसा नहीं है कि प्रणव मुख़र्जी पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो संघ की विचारधारा के विरोधी होने के बावजूद संघ के किसी समागम में शरीक हो रहे हैं.
इससे पहले आरएसएस विचारधारा के धुर विरोधी, महात्मा गांधी, बी.आर. आंबेडकर, जय प्रकाश नारायण और ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसी शख्सियतों ने भी संगठन की सभाओं में शिरकत की है.
बहारहाल, नागपुर में प्रणव मुख़र्जी के भाषण में अब कुछ ही समय बाक़ी रह गया है. नागपुर जाने के अपने फैसले पर विरोध का जो सामना उन्हें करना पड़ा है उसका उन्होंने यह कहकर जवाब दिया कि वह अपने भाषण में ही इसका जवाब भी देंगे.
प्रणव दा का संबोधन ख़ास:
फिलहाल जो समाचार आ रहे हैं वह यह कि प्रणव दा का भाषण लिखित और अंग्रेजी में होगा जिसके प्रष्टों की संख्या लगभग 25 है. हम उमीद करते हैं कि आज शाम साढ़े छः बजे जब प्रणव मुख़र्जी रेशमी बाग़ स्थिति मंच से आरएसएस कार्यकर्ताओं को संबोधित करेंगे तो भारत की संस्कृति, वासुदेव कुटुम्बम की उसकी आत्मा, और बहुलवाद जो भारतीय धार्मिक-परंपरा का अभिन्न अंग है, पर भी प्रकाश डालेंगे,
साथ ही आरएसएस के विचारकों को भी यह समझाने की कोशिश करेंगे कि उन्हें देश के सवा-सौ करोड़ भारतीयों को एक सूत्र में पिरोने के लिए और क्या-क्या करना चाहिए.
हमें उम्मीद है कि अनुभवी प्रणव दा आज आरएसएस के मंच से देश के जन-मानस में बैठी बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक जैसी शब्दावली से हटकर भारतीय संविधान में निहित नागरिक शब्द को जीवन के हर क्षेत्र में अपनाने का आह्वान करेंगे.
धर्म, जाति, लिंग, वर्ण-भेद तो हमारा आपका निजी मामला है, संविधान तो भारत में रहने वाले हर भारतीय को केवल नागरिक मानता है, देखना यह है कि प्रणव दा के भाषण में उस नागरिक की जीत होती है या नहीं.