उत्तर प्रदेश के कानपुर में मोहर्रम के मौके पर एक खासतौर का जलसा होता है. ऐसा हैदराबाद और वाराणसी में भी होता है, लेकिन कानपुर में इसकी तस्वीर ही अलग होती है.
अलग होता है नज़ारा-
- कानपुर में निशान-ए-पैक कासिदे हुसैन और तंजीमुल पैक कासिदे हुसैन नाम की दो तंजीमें पैकी (मन्नती) बनाती हैं.
- पैकी ज्यादातर सफेद कपड़े पहनते हैं, कमर में रंग-बिरंगी और कंधों से बंधी डोरी होती है.
- पैकी के हाथों में चमकती चलवार होती है और कलावा बंधा होता है.
- सिर पर ऊंची खास टोपी होती है. पैकी की कोई उम्र नहीं होती.
- पैकी बनने के बाद छोटी-छोटी टुकड़ियों में क्षेत्रवार दौड़ते हैं.
- घरों पर पूरी टुकड़ियों को दावत या चाय पर बुलाया जाता है.
- नौवीं मोहर्रम की रात इनकी टुकड़ी एक ही हो जाती है, जिसमें दो लाख से ज्यादा पैकी होते हैं.
कौन है पैकी-
- पैकी एक तरह से मन्नती होते हैं और ज्यादातर पैकी सुन्नी मुसलमान बनते हैं.
- पैकी पांचों दिन पैदल चलते हैं और जमीन पर सोते हैं.
- उन्हें किसी भी तरह का नशा करना मना होता है.
- एक पैकी बनने में 300 से 3000 रुपये तक का खर्च आता है.
कैसे शुरू हुई ये परंपरा-
- बताया जाता है कि हजरत इमाम हुसैन की बेटी हजरते सुगरा बीमार थीं.
- उन्हें इमाम मदीने में छोड़ आए थे.
- उन्हें कर्बला से संदेश देने और संदेश लाने का काम कासिदे पैक व कासिदे हुसैन करते थे.
- पैकी बनने की परंपरा वहीं से शुरू हुई.
- हालांकि इसको लेकर कई दूसरी बातें भी कही जाती हैं.
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