इलाहाबाद: उत्तर प्रदेश का सबसे सुस्ताया हुआ शहर, पर इसकी राजनीतिक सक्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसने देश को अकेले 7 प्रधानमंत्री दिए। 1887 में जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय की नींव रखी गयी तब कौन जानता था कि यहाँ पैदा होने वाले हर बच्चे को राजनीतिक समझ ‘विरासत’ के तौर पर मिलेगी। इस शहर के अल्हडपने में भी एक तहजीब है, हर चाय की गुमटी पर आपको 1 दर्जन राजनीतिक विशेषज्ञ मिल जाएंगे, ऐसे में यहाँ पर चुनावी रंग कैसे चढ़ रहा है ये हम आपको दिखाएंगे, पहचानना आपका काम है।

कटरा में एक चाय की दुकान पर बैठे उमाशंकर उपाध्याय से हमने पूछा क्या कहते हैं? किसकी सरकार बनेगी? तो कहने लगे “अमा यार छोड़ो, होली की सोचो, सरकार किसकी बनेगी ये नेतराम चौराहा बता देगा”, वैसे भी कहते हैं कि गब्बर के बाद इलाहाबादी ही पूछते हैं कि “होली कब है”। जवाब में उदासीनता नहीं थी, एक उत्साह सा था। ये शहर मैंने एक पत्रकार की तरह नहीं, एक इलाहाबादी की तरह जी कर देखा है, इसकी खासियत बस इतनी सी है “ये शहर कुछ भूलता नहीं है”

42.86 लाख मतदाताओं वाले इस शहर में इस बार मुकाबला पिछली बार से कहीं मजेदार और रोचक है। बात करें विधानसभा चुनाव की तो 2012 में यहाँ 12 में से 8 सीटें जीत कर सपा का दबदबा था, भाजपा अपना अस्तित्व खोती हुई दिखाई दे रही थी तो वहीँ बसपा को सियासी झटका मिला था। पर पांच साल में स्थिति बिल्कुल जुदा है, यहाँ के मतदाताओं में गंगा की चंचलता और यमुना की गहराई है, और ‘इलाहाबादी बकैती’ सरस्वती की तरह लुप्त है, इस त्रिवेणी के तह तक जाने की कोशिश जरूर की हैं। कामयाबी कितनी मिली, ये तो आप भी बताइयेगा।

ग्राउंड रिपोर्ट: विधानसभा दर विधानसभा

विधानसभा- शहर पश्चिमी
बाहुबली अतीक अहमद की सीट जहाँ से खुद उनके भाई भी विधायक रह चुके हैं, इस साल सबसे ज्यादा चर्चा इसी सीट को लेकर है। बहुचर्चित राजू पाल हत्या काण्ड के बाद पश्चिमी सीट पर एकतरफा जीत दर्ज कर उनकी पत्नी पूजा पाल ने ये बताया था कि इलाहाबाद इंसाफ करना जानता है। इस बार मैदान में हैं सपा से इविवि छात्रसंघ की पूर्व अध्यक्षा ऋचा सिंह, भाजपा से सिद्धार्थनाथ सिंह और बसपा से पूजा पाल। एक नज़र में तो लगता है लड़ाई सीधा बसपा और भाजपा के बीच है, पर अगर अतीक पूजा के विरोध में अपना वोट बैंक ऋचा की तरफ शिफ्ट करने में कामयाब हुए तो लड़ाई त्रिकोणीय हो जाएगी। पूजा पाल के पास सहानुभूति, ऋचा सिंह के साथ युवा महिला वोट और डिंपल की गुहार है, तो वहीँ सिद्धार्थनाथ सिंह के साथ अमित शाह की ललकार के साथ भाजपा के सभी समर्थक। ऐसे में लड़ाई कभी भी बदल सकती है, पर फिलहाल मुकाबला बसपा और भाजपा के बीच है।

विधानसभा- शहर दक्षिणी
कभी भाजपा की सेफ सीट मानी जाने वाली सीट में बसपा के नन्द गोपाल नंदी ने सेंध लगाई थी, मजेदार बात ये है कि वही इस बार खुद भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। बसपा से निष्काषित और कांग्रेस से तड़ीपार नंदी भले ही भाजपा के स्थानीय नेताओं को ‘बाहरी’ लगें, पर इस विधानसभा में उनके ‘अपनों’ की कमी बिलकुल नहीं है। सपा के प्रत्याशी परवेज अहमद, जिनका पेट्रोल पम्प है इसलिए वो ‘परवेज टंकी’ नाम से जाने जाते हैं उनका दावा है कि वो बड़े अंतर से जीत दर्ज करेंगे। पर गणित के अंक नंदी के साथ जरूर हैं। नतीजा क्या होगा ये देखने लायक होने वाला है।

विधानसभा- शहर उत्तरी
इलाहाबाद के सियासी दंगल का यह मुकाबला भी कम रोचक नहीं है, इसकी एक वजह है अनुग्रह नारायण सिंह, उत्तर प्रदेश के एकमात्र कांग्रेस नेता जो अपने लोगों के लिए 24 घंटे उपलब्ध रहते हैं। ऐसे में पिछली बार दूसरे नंबर पर रहे बसपा के प्रत्याशी हर्षवर्धन वाजपेयी जिनकी माँ सपा से मंत्री थी और वो अब भाजपा से चुनाव लड़ रहे हैं (समझ नहीं आया होगा, एक बार फिर से पढ़ लीजिये) इस बार कड़ी टक्कर दे रहे हैं। एक ओर जहाँ अनुग्रह के संघर्ष को गठबंधन का सहारा है वहीँ हर्ष को युवाओं का साथ है। दोनों ही नेता बेहद साफ़ छवि के हैं, देखने वाली बात होगी कि इस सियासी दंगल में अनुभव की जीत होती है या जोश की। वहीँ बसपा प्रत्याशी अमित मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश में जरूर हैं।

विधानसभा- फूलपूर
दो मुस्लिम प्रत्याशी (सपा से मंसूर और बसपा से मसरूर) मैदान में होने के कारण बसपा से गोद लिए हुए भाजपा प्रत्याशी प्रवीण पटेल को इस बार अपनी जीत का पूरा भरोसा है। ऐसे मतदाता अगर मात्र एक ‘वोट बैंक’ बन कर ना रह जाएँ तो मुकाबला रोचक हो सकता है। फूलपूर इलाहाबाद का वो हिस्सा है जिसका एक पैर बनारस में है और दूसरा जौनपुर में। ऐसे में यहाँ के मतदाताओं को समझ पाना एक पूर्वांचली के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं है।

विधानसभा- प्रतापपुर
दबंग नेता विजमा यादव के एकतरफा जीत के दावे को ठेस तब पहुंची जब संतोष उर्फ़ आर्मी मैदान में निर्दलीय प्रत्याशी बन कर आ गए। स्थानीय कहते हैं कि ये ‘वोट-कटुआ’ का काम जरूर करने वाले हैं। ऐसे में बसपा और अपना दल के प्रत्याशी में बराबरी से मैदान में खड़े हैं। यहाँ मुकाबला कभी भी किसी ओर घूम सकता है।

विधानसभा- अन्य सभी

बाकी बची विधानसभा में गणित थोड़ी और उलझी हुई है, हंडिया से प्रशांत सिंह को सपा से टिकट ना मिलने से बसपा से पूर्व मंत्री राकेशधर त्रिपाठी की धर्मपत्नी की बांछें खिली हुई हैं, वहीँ मेजा और करछना से नीलम करवरिया (बाहुबली उदयभान करवरिया की पत्नी) और उज्जवल रमण (क्रमशः) की इज़्ज़त दाव पर लगी हुई है। वहीँ बारा, सोरांव, फाफामऊ और कोरांव में लड़ाई कही ना कहीं सत्ता परिवर्तन की लगती है। शहर इलाहाबाद इस बार सत्ता की चाभी जरूर दिखाई देता है, ऐसे में कल इन सभी उम्मीदवारों की किस्मत बैलट बॉक्स में कैद होने जा रही है।

ये शहर ऐसा है जहाँ तहजीब यहाँ आवारगी से मिलती है, ऐसे में इलाहाबादी किसे अपना नेता चुनेंगे ये तो वही जानें, पर एक बात जरूर है, बसपा को कहीं भी कम आंकना बेईमानी होगी। क्योंकि अभी भी समाज का एक ऐसा वर्ग है जो मीडिया के कैमरों से काफी दूर है और लोकतंत्र की खूबसूरती ही यही है कि यहाँ मजदूर हो या डॉक्टर, वोट एक ही दे सकता है।

और हाँ, चुनाव आयोग के लिए एक ख़ास सन्देश है “अमा यार पूरा इलाहाबाद  3 से  5 सोअत है, वह्मा काहें वोटिंग रख दिए हो? कुछ करबो की नै? वोटिंग परसेंटेज गिर जाइ तो फिर कहबो इलाहाबादी बकैत हैं।

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