सिख समाज के पहले गुरु ‘गुरु नानक देव’ के प्रकाशोत्सव पूरे देश में धूमधाम से मनाया जा रहा है। गुरू नानक देव जी का जन्म हुआ कार्तिक महीने की पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसलिए हर साल कार्तिक महीने की पूर्णिमा को गुरू नानक जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस दिन सिख समुदाय के लोग प्रकाशोत्सव के रूप में मनाते हैं। कहा जाता है कि गुरु नानक देव जी ने ही सिख धर्म की स्थापना की थी और इसलिए गुरु नानक सिखों के आदिगुरु कहलाए। समाज में फैली कुरीतियों को खत्म करने के लिए गुरू नानक देव जी ने कई दौरे किए और जहां पर भी वो गए अपने उपदेशों को फैलाया। उनके उपदेश आज भी प्रासंगिक नज़र आते हैं। प्रकाशोत्सव के दिन श्रद्धालुओं ने खूब लंगर छका। सभी गुरुद्वारों में आस्था, विश्वास और समर्पण के साथ हर वर्ग समुदाय के लोग लंगर में हिस्सा ले रहे हैं। सिख समाज के पहले गुरु नानक देव ने ही लंगर की परंपरा की शुरुआत की थी।
[penci_blockquote style=”style-1″ align=”none” author=””]गुरु नानकदेव का सच्चा सौदा है लंगर[/penci_blockquote]
लखनऊ गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष राजेंद्र सिंह बग्गा ने बताया कि ‘1898 में स्थापित गुरुद्वारा नाका हिंडोला में आर्यनगर और पंजाबी मुहल्ले से बचा भोजन सुबह मांगा जाता था। सेवादार बाल्टियां लेकर घर-घर दाल, सब्जी, रोटी और चावल मांग कर लाते थे। दोपहर एक बजे गरीबों को यह भोजन बांटा जाता था। भोजन वितरण की यह शुरू हुई परंपरा अभी भी कायम है। गुरु पर्व हो या न हो यहां हर दिन एक बजे गुरु के नाम पर लंगर सेवा होती है। परसादा (रोटी) बनाने के लिए मशीन का इस्तेमाल होता है। गुरुद्वारे में किशन सिंह, कुलवंत कौर व नीतू कौर के अलावा कई लोग लंगर सेवा करते हैं। गुरुनानक देव जी की जीवनी में गुरुद्वारा नाका हिंडोला होते हुए काकोरी में मजार से होते हुए आगे बढ़े थे। उसके बाद यहां गुरुद्वारे की स्थापना की गई।
उन्होंने बताया कि ‘सिखों के गुरु नानकदेव ने अत्यधिक तपस्या और अत्यधिक सांसारिक भोगविलास, अहंभाव और आडंबर, स्वार्थपरता और असत्य बोलने से दूर रहने की शिक्षा दी। गुरु नानक देव को उनके पिता जी कल्यानचंद उर्फ मेहता कालू जी ने 20 रुपये बिजनेस के लिए दिए थे, लेकिन उन्होंने उस 20 रुपये में लोगों को भोजन करा दिया था। पिता जी ने सच्चा सौदा करने की बात कही थी और नानक देव ने भूखे को भोजन कराने की परंपरा का निर्वहन किया सबसे बड़ा सौदा कर दिया। उसके बाद से गुरुद्वारों में शुरू हुई परंपरा चलती रही। यह भी कहा जाता है कि अकबर बादशाह ने तीसरे गुरु अमरदास से लंगर का इंतजाम करने की बात कही तो गुरु ने यह कहते हुए मना कर दिया कि इसमे आपका घमंड होता, श्रद्धा तो संगतों के पैसे से आएगी। इसके चलते लंगर सेवा के लिए मिलकर इंतजाम करते हैं। कुछ आर्थिक मदद तो कुछ लोग लंगर सेवा करके अपनी भागीदारी निभाते हैं।’
[penci_blockquote style=”style-1″ align=”none” author=””]गुरुद्वारा यहियागंज में ठहरे थे गुरु गोविंद सिंह[/penci_blockquote]
गुरुद्वारा यहियागंज के अध्यक्ष डॉ.गुरमीत सिंह ने बताया कि ‘सिख समाज के 10वें और अंतिम गुरु गोविंद सिंह गुरुद्वारा यहियागंज ठहरे थे। बिहार के पटना साहिब में 22 दिसंबर 1666 में गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ था। छह वर्ष की आयु में अपनी माता माता गुजरी और माता कृपाल जी महाराज के साथ आनंदपुर साहिब से पटना साहिब जाते समय दो महीने 13 दिन के लिए गुरुद्वारा यहियागंज में ठहरे थे। इसके साथ ही गुरु तेग बहादुर जी महाराज 1672 यहां आए थे और तीन दिन तक रुके थे। गुरु गोविंद सिंह द्वारा हस्त लिखित गुरु ग्रंथ साहिब भी गुरुद्वारे में मौजूद है। हुक्म नामे भी गुरुद्वारे की शोभा बढ़ा रहे हैं। गुरुद्वारे में लंगर सेवा में हर वर्ग की भागीदारी होती है।’
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