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जरी और चिकनकारी के लिए मशहूर नवाबों का यह शहर अपनी पहचान को खोता जा रहा है। जिस कारीगरी की लोग मिसालें दिया करते थे उन कारीगरों की जिंदगी अब बद से बदत्तर हो चली हैै। रोजाना 12 घंटे अपनी आंखें फोडकर बहतरीन जरी के सूट व साडियां तैयार करने वाले इन कारीगरों को इस काम से दो जून की रोटी का भी जुगाड होना मुश्किल हो गया है। उनकी हालत अब इस कदर खराब हो चली है कि वो अब जरी का काम छोड़ रिक्शा चलाने को मजबूर हैं।
12 घंटे काम के मिल रहे 180 रुपये
- राजधानी के चैपटिया इलाकें में बसे इन कारीगरों की आर्थिक स्थिति बेहद खराब है।
- यही वजह है कि अब वो इस काम को बंद करना चाहते हैं ।
- अपने दादा परदादा के मकान के होने से उन्हेें बस रहने का आसरा है।
- इसके अलावा न तो उनके पास कोई और छत है और न ही पेट भरने का दूसरा कोई रास्ता ।
- जरी कारीगरों ने बताया कि 12 घंटे काम करने के बाद उन्हें मात्र 180 मेहनताना मिलता है।
- ऐसे में अपने परिवार को पेट पालना बहुत मुश्किल हो गया है ।
- अब तो जेहन में बस यही बात आती है कि इस काम को छोड दें।
- बच्चों को पेट भर खाना देना ही इतना मुश्किल है कि उन्हें अच्छी शिक्षा कहां से दें।
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- दिन रात काम करने के बाद भी हम लोगों के पास अपनी कोई संपत्ति नहीं है।
- तंग गलियों में बसे इन जरी कारीगरों ने अब धीरे धीरे इस काम से किनारा कर लिया है।
- मोहम्मद इकबाल बताते हैं कि मैं बीते 40 साल से यही काम कर रहा हूं।
- लेकिन, अब बच्चे भी जिद कर रहे हैं कि अब्बा ये काम छोड़ दो ।
- वो कहते हैं कि जब इससे हमारा घर भी नहीं चलता तो इस काम का क्या फायदा ।
- इससे अच्छा तो कोई दुकान खोलकर बैैठ जाएं तो हमें ठीक से खाना तो मिलेगा।
- वहीं अब इकबाल भी इस काम को करके थक चुके हैं ।
सरकार नहीं समझ रही हमारी परेशानी
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- वो कहते हैं कि हम सोचते थे कि हमारी समस्याओं को भी कभी सरकार समझेेगी।
- लेकिन, सरकारें आती हैं चली जाती हैं लेकिन हमारी स्थिति जस की तस बनी हुयी है।
- फिर ऐसे में हम अपने बच्चों को क्यों ये काम सिखाएं।
- हमें पता है कि यदि उन्हें भी ये काम सिखाया तो जीवन में वो भी आगे कुछ नहीं कर पाएंगे।
- जितने भी जरी के पुराने कारीगर हैं अब सबका यही कहना है कि ये काम हम अपने बच्चों से नहीं कराएंगे।
- हम अपने बच्चों को कैसे भी करके पढ़ाएंगे लेकिन उन्हें ये काम नहीं करने देंगे।
आगे वीडियो में देखें जरी कारीगरों का हुनर
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नहीं मिलता है मेहनताना
- मोहम्मद इकबाल के साथ सभी कारीगरों ने एक ही जुबान में कहा कि हमें हमारा मेहनताना तक नहीं मिल पाता है।
- यदि एक साड़ी बनाने में हमारा खर्च 3000 रुपये आता है तो बाजार में वह 2200 में बिकती है।
- अब ऐसे में आप ही बताएं कि आखिर इस काम को करने का क्या मतलब ।
- जब हमें मुनापफे के तौर पर 100 रुपये भी नहीं मिल सकते हैं तो ये काम करके क्या फायदा।
- हम जितना भी कमाते हैं सब का सब खर्च हो जाता है।
- बचत के तौर पर हमारे हाथ में कुछ भी नहीं आता हैै।
- ऐसे में अब इस काम को बंद कर देना ही हमारे लिए बेहतर होगा।
आगे वीडियो में देखें कारीगरों ने कैसे बयां किया दर्द
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जा रही है आंखों की रोशनी
- करीब 40 साल से जरी का काम करने वाले कारीगरों की आंखों की रोशनी कम हो चुकी है।
- कुछ ही आंखें तो इस कदर खराब हो चुकी हैं कि उन्हें दिन में भी ठीक से दिखायी नहीं देता है ।
- उनके पास जरी का काम करने से इतने पैसे भी नहीं आ पाते हैं कि वो किसी अच्छे डाॅक्टर को दिखा सकें।
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- कारीगर बताते हैं कि लगातार 12 घंटे जमीन पर बैठकर हमें झुककर काम करना पड़ता है।
- जरी का काम बहुत ही बारीक होता है जिसके लिए पूरा ध्यान लगाना पड़ता है।
- जरा सा भी असावधानी हुयी तो पूरा काम खराब हो जाता हैै।
- यही वजह है कि लगातार कई सालों से कढाई का काम करने से आंखों की रोशनी कम हो गयी है।
https://youtu.be/WXtmWaDOQ3Y
सरकार से नहीं है कोई उम्मीद
- मोहम्मद इकबाल ने बताया कि हम लोेगों के पास कोई ऐसा माध्यम भी नहीं है कि हम अपनी बात सरकार तक पहुंचा सकें।
- सरकार भी कभी अपने मन से हमारे बारे में नहीं सोचती हैं
- इन तंग गलियों में बसने के कारण कोई भी अधिकारी या मंत्री हमारी हालत देखने नहीं आता है।
- यदि कोई आता तब शायद हमारी समस्याएं समझ पाता ।
- लेकिन, किसी भी अधिकारी या मंत्री के पास हमारी दिक्कतों से रुबरु होने का समय नहीं है।
- ऐसे में हमारी मजबूरी है कि हम ये काम छोडकर अब रिक्शा चलाएं या दुकान।
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