उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बच्चों को शिक्षा की ओर प्रेरित करने के उद्देश्य से एक बार फिर “स्कूल चलो अभियान” की शुरुआत करने जा रहें हैं. यह अभियान पूरे राज्य में 2 अप्रैल से 30 अप्रैल तक चलाया जायेगा. गरीब बच्चों को स्कूलों तक लाने की यह मुहीम किस हद्द तक सफल होगी, यह देखने वाली बात है क्यूंकि सरकार को यह समझ लेने की जरूरत है कि जब बच्चों के पास स्कूल में पढ़ने के लिए मूलभूत चीजें ही नही हैं, तो ऐसे अभियान का क्या फ़ायदा? 

2 महीने भी न चले सरकार के दिए जूते व बैग:

स्कूल चलो अभियान को सफल बनाने के लिए प्रदेश के सभी सांसदों, विधायकों, महापौरों तथा अन्य शासी निकाय प्रमुखों को पत्र लिखकर उनसे पूर्ण सहयोग देने का अनुरोध किया है. मुख्यमंत्री ने अपने पत्र में कहा कि अभी भी बहुत बच्चों का नामांकन स्कूलों में नही हो सका है.

school chalo abhiyan

जिससे बच्चें निशुल्क शिक्षा का लाभ नही ले पा रहे है. ऐसे बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलवा कर शिक्षा की और अग्रसर करना है. प्रदेश सरकार ने 2 अप्रैल से राज्य में ‘स्कूल चलो अभियान’ की शुरुआत की है।

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सत्ता में आने के बाद से ही मुख्यमंत्री शिक्षा को लेकर काफी कुछ चुके है. उनके मेनोफेस्टो में भी शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण बिंदु था. इसी के चलते मुख्मंत्री योगी आदित्यनाथ ने 1 जुलाई 2017 को “स्कूल चलो अभियान” की शुरुआत की थी. उनका लक्ष्य था प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए शत प्रतिशत बच्चों का स्कूलों में दाखिला करवाना.

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मुख्यमंत्री ने बच्चों को शिक्षा के लिए प्रेरित करने के लिए उनकी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने का एलान किया. इसी अभियान के तहत सरकार ने बच्चों को स्कूली जूते, बैग स्वेटर बटवाएं लेकिन मुख्यमंत्री का यह तोफा बच्चों के लिए कितना उपयोगी निकला ये तो उन बच्चों से ही पूछा जा सकता है.

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बता दें कि पिछले साल दिवाली में बच्चों को काले स्कूली जूतें दिए गये थे, इन जूतों के लिए सरकार ने 266 करोड़ रुपये का बजट पास किया था. जो एक सत्र तो दूर की बात है, 2 महीनें भी बामुश्किल चले. स्वेटर और बैग के बारे में भी क्या कहें.

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प्रिंसिपल ने बताई जूतों की सच्चाई:

इस बारे में जब uttarpradesh.org की टीम लखनऊ के एक सरकारी प्राथमिक स्कूल में पहुंची, तो सरकार की शिक्षा को लेकर  गम्भीरता स्पष्ट हो गयी. वहां बच्चों को जूतें के नाम पर चिथड़े पहने देखा तब पता चला कि सरकारी तन्त्र की योजनायों का क्रियान्वयन कैसे होता है.

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लखनऊ के जियामऊ की प्रिंसिपल से बात करने पर बच्चों की इस हालत पर सारा सन्देह दूर हो गया. प्रधानाचार्या ने बताया कि सर्कार की तरफ से दिवाली में बच्चों को जुटे दिए गये थे. हालाँकि जूतें सभी बच्चों को नही मिल पाए थे, जिसको लेकर बेसिक शिक्षा विभाग के अधिकारियों को सूचित भी किया गया था. पर इस पर कोई कार्रवाई नही की गयी. बहरहाल जिन बच्चों को जूतें मिले, उन्हें भी इसका लाभ न मिल सका. जूतों की गुणवत्ता इतनी बेकार थी कि जूतें 2 महीने भी न टिके.

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बच्चे जूतों को रस्सी से बांध कर, सिलवा कर और कई अन्य जतनों से पहन कर स्कूल आते है.बच्चों की माने तो उनका कहना है कि न के बराबर पहने जूतों से बेहतर तो नंगे पैर आना लगता है.

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आखिर इतनी खराब गुणवत्ता का सामान देकर सरकार सिर्फ खानापूर्ति करना चाहती हैं या सच में उन्हें इन नन्हें नौनिहालों की शिक्षा की चिंता है. मुख्यमंत्री हर सार्वजानिक मंच से शिक्षा की जरूरत के बारे में बात करते है, शायद इसी लिए उन्होंने स्कूल चलो जैसे अभियान की शुरुआत की. उनका ये अभियान सफल भी हो सकता है, होना भी चाहिए.

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शत प्रतिशत बच्चें स्कूलों में दाखिला ले लेंगे. यह  सरकार के लिए एक बड़ी उपलब्धी होगी पर बच्चें दाखिले के बाद स्कूल कैसे जायेंगे, कैसे पढेंगे? जब न तो उनके पास स्कूल की ड्रेस होगी , न ही जूते, न बैग और न किताबें.

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शिक्षा के लिए सरकार फिर बड़े बड़े बजट पास करवाएंगी. पर ऐसा बजट बच्चों को शिक्षा के लिए सच में प्रेषित करेगा, यह संदेह पूर्ण है.

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