उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के तत्वावधान में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की पावन स्मृति के अवसर पर “नवजागरण की चेतना और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र” विषय पर संगोष्ठी का आयोजन शनिवार को निराला सभागार, हिन्दी भवन, लखनऊ में किया गया।

डाॅ. सदानंद प्रसाद गुप्त कार्यकारी अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की अध्यक्षता में आयोजित संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में प्रो. सुरेन्द्र दुबे, कुलपति, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झांसी, प्रो. सूर्य प्रसाद दीक्षित, पूर्व प्रोफेसर, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ एवं मुख्य वक्ता के रूप में डाॅ. हरिशंकर मिश्र, पूर्व आचार्य, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ आमंत्रित थे।

दीप प्रज्वलन, मां सरस्वती की प्रतिमा पर पुष्पार्पण के उपरान्त प्रारम्भ हुए कार्यक्रम में वाणी वन्दना संगीतमयी प्रस्तुति डाॅ. पूनम श्रीवास्तव द्वारा की गयी। मंचासीन अतिथियों का उत्तरीय द्वारा स्वागत सुनील कुमार सक्सेना, उपनिदेशक, उ.प्र. हिन्दी संस्थान ने किया। मुख्य वक्ता के रूप में डाॅ. हरिशंकर मिश्र ने “नवजागरण की चेतना और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र” विषय पर व्याख्यान देते हुए कहा- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र साहित्य जगत के युगप्रवर्तक थे।

उन्नसवी शताब्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भारतवासियों के हृदय में नवजागरण पैदा किया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र में राज्यभक्ति और राष्ट्रभक्ति समान रूप से थी। उनमें बालपन से ही समझने की शक्ति थी। उन्होंने अंग्रेजों के अत्याचार को काफी निकट से देखा था। उनके समय में समाज में बड़ी विडम्बना थी। वे अपने मन की बात को बड़ी दृढ़ता से कहते थे। उन्होंने अंग्रेजी भाषा का विरोध किया। हिन्दी भाषा के उन्नयन में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का योगदान अतुलनीय रहा है, उनका रचना संसार व्यक्तित्व और कृतित्व व्यापक था।

विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रो. सूर्य प्रसाद दीक्षित ने कहा – उन्नसवीं शताब्दी का जागरण आर्थिक जागरण पर केन्द्रित था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र दूरदर्शी व्यक्ति थे। उन्होंने साहित्य की प्रत्येक विधा पर अपनी रचनाएं रची। उनके अन्दर नैसर्गिक लेखन की क्षमता थी। उन्हें यह क्षमतायें विरासत में मिली थी। जगत का उन्हें व्यापक अनुभव था। अंग्रेजो के शोषण के खिलाफ उन्होेंने एक आन्दोलन चलाया था। वे अपनी रचना आम बोल-चाल की भाषा में लिखते थे। जनता द्वारा दी गयी पहली उपाधि “भारतेन्दु” हरिश्चन्द्र जी को मिली। उन्होंने व्यंग्य के माध्यम से जनजागरण किया। हिन्दी के प्रथम गजलकार भारतेन्दु थे।

मुख्य अतिथि के रूप में पधारे प्रो. सुरेन्द्र दुबे, कुलपति, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झांसी ने अपने सम्बोधन में कहा – भारतेन्दु हिन्दी के श्लाका पुरुष थे। नवजागरण पुनर्जागरण ही है। भारतेन्दु के समय का जागरण लोक का पुनर्जागरण है। भारतेन्दु जी भारत भक्त विचारक थे। विदेशी वस्तुओं के प्रबल विरोधी थे। राष्ट्र के निर्माण के मूलतत्वों की खोज भारतेन्दु ने की। वे स्त्री-पुरुष की समानता के पक्षधर थे। उनका युग सजीव व चेतना का युग था। उन्होंने अपने नाटकों में समाज का चित्रण किया है। नाटक को “पंचमवेद” कहा गया है।

डाॅ. सदानन्द प्रसाद गुप्त ने कहा- भारतेन्दु ने हमें भारत की स्वतंत्रता का सूत्र दिया। उन्होंने “स्वत्व” का महत्व हम भारतवासियों का बताया। उनका साहित्य हमारे अन्दर नयी चेतना का संचार करती है। वे आर्थिक सम्पन्नता के पक्षधर थे। उनका स्वच्छता का अभियान था कि उन्नति में आने वाली बुराइयों को कांटों को निकाल कर फेंकने की आवश्यकता है। वे स्वदेशी चेतना के पक्षधर थे। उन्होंने साहित्य को दरबारी परम्परा से हटाकर जनता के बीच का साहित्य बनाया। भारतेन्दु जी ने भारतवासियों को एक सूत्र में बाँधने का कार्य किया।

 

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