[nextpage title=”रवीश कुमार द्वारा यूपी पुलिस को लिखे ‘खूले पत्र’ पर SSP धर्मेन्द्र यादव ने दिया करारा जवाब!” ]
बीते दिनों हुये मथुरा में खूनी जंग पर सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपना अपना विचार दिया। इस घटना क्रम को आगे बढ़ाते हुये NDTV के रिपोर्टर रवीश कुमार ने भारतीय पुलिस सेवा पर ऊँगली उठाते हुये एक पत्र लिखा। जिसको पढ़ने के बाद भारतीय पुलिस सेवा के एक अधिकारी ने रवीश कुमार के उस ख़त का ऐसा जवाब दिया कि जिससे NDTV के रिपोर्टर रवीश कुमार की बोलती ही बन्द हो गयी।
आइये आपको बताते हैं रवीश कुमार द्वारा भारतीय पुलिस सेवा को लिखी गयी चिट्ठी के मुख्य अंश-
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[nextpage title=”रवीश कुमार द्वारा भारतीय पुलिस सेवा को लिखी गयी चिट्ठी के मुख्य अंश” ]
रवीश कुमार का भारतीय पुलिस सेवा के नाम एक पत्र इस प्रकार है….
प्रिय भारतीय पुलिस सेवा (उत्तर प्रदेश),
मैं यह पत्र इसलिए नहीं लिख रहा कि एक पीपीएस अधिकारी मुकुल द्विवेदी की मौत हुई है। मुझे सब इंस्पेक्टर संतोष यादव की मौत का भी उतना ही दुख है। उतना ही दुख ज़ियाउल हक़ की हत्या पर हुआ था। उतना ही दुख तब हुआ था जब मध्य प्रदेश में आईपीएस नरेंद्र कुमार को खनन माफ़िया ने कुचल दिया था।
- दरअसल कहने के लिए कुछ ख़ास है नहीं लेकिन आपकी चुप्पी के कारण लिखना पड़ रहा है।
- ग़ैरत और ज़मीर की चुप्पी मुझे परेशान करती है।
- इसी वजह से लिख रहा हूँ कि आप लोगों को अपने मातहतों की मौत पर चुप होते तो देखा है मगर यक़ीन नहीं हो रहा है कि आप अपने वरिष्ठ, समकक्ष या कनिष्ठ की मौत पर भी चुप रह जायेंगे।
- मैं बस महसूस करना चाहता हूँ कि आप लोग इस वक्त क्या सोच रहे हैं।
- क्या वही सोच रहे हैं जो मैं सोच रहा हूँ? क्या कुछ ऐसा सोच रहे हैं जिससे आपके सोचने से कुछ हो या ऐसा सोच रहे हैं कि क्या किया जा सकता है।
- जो चल रहा है चलता रहेगा।
- मैं यह इसलिए पूछ रहा हूँ कि आपके साथी मुकुल द्विवेदी का मुस्कुराता चेहरा मुझे परेशान कर रहा है।
- मैं उन्हें बिलकुल नहीं जानता था। कभी मिला भी नहीं।
- लेकिन अपने दोस्तों से उनकी तारीफ सुनकर पूछने का मन कर रहा है कि उनके विभाग के लोग क्या सोचते हैं।
मैं इस वक्त आप लोगों के बीच अपवादस्वरूप अफ़सरों की बात नहीं कर रहा हूं। उस विभाग की बात कर रहा हूँ जो हर राज्य में वर्षों से भरभरा कर गिरता जा रहा है। जो खंडहर हो चुका है।
- मैं उन खंडहरों में वर्दी और कानून से लैस खूबसूरत नौजवान और वर्दी पहनते ही वृद्ध हो चुके अफ़सरों की बात कर रहा हूँ जिनकी ज़िले में पोस्टिंग होते ही स्वागत में अख़बारों के पन्नों पर गुलाब के फूल बिखेर दिये जाते हैं।
- जिनके आईपीएस बनने पर हम लोग उनके गाँव घरों तक कैमरा लेकर जाते हैं।
- शायद आम लोगों के लिए कुछ कर देने का ख़वाब कहीं बचा रह गया है जो आपकी सफलता को लोगों की सफलता बना देता होगा।
- इसलिए हम हर साल आपके आदर्शों को रिकार्ड करते हैं।
- हर साल आपको अपने उन आदर्शों को मारते हुए भी देखते हैं।
- क्या आप भारतीय पुलिस सेवा नाम के खंडहर को देख पा रहे हैं?
- क्या आपकी वर्दी कभी खंडहर की दीवारों से चिपकी सफ़ेद पपड़ियों से टकराती है? रंग जाती है?
- आपके बीच बेहतर, निष्पक्ष और तत्पर पुलिस बनने के ख़्वाब मर गए हैं।
- इसलिए आपको एसएसपी के उदास दफ्तरों की दीवारों का रंग नहीं दिखता।
- मुझे आपके ख़्वाबों को मारने वाले का नाम पता है मगर मैं मरने और मारे जाने वालों से पूछना चाहता हूँ।
- आपके कई साथियों को दिल्ली से लेकर तमाम राज्यों में कमिश्नर बनने के बाद राज्यपाल से लेकर सांसद और आयोगों के सदस्य बनने की चाह में गिरते देखा हूँ।
- मुझे कोई पहाड़ा न पढ़ाये कि राजनीतिक व्यवस्थाएँ आपको ये इनाम आपके हुनर और अनुभव के बदले देती हैं।
- मुझे कतर्व्य निष्ठा और परायणता का पाठ मत पढ़ाइये।
- इस निष्ठा का पेड़ा बनाकर आपके बीच के दो चार अफसर खा रहे हैं और बाकी लोग खाने के मौके की तलाश कर रहे हैं।
- मामूली घटनाओं से लेकर आतंकवाद के नाम पर झूठे आरोपों में फँसाये गए नौजवानों के किस्से बताते हैं कि भारतीय पुलिस सेवा के खंडहर अब ढहने लगे हैं।
- दंगों से लेकर बलवों में या तो आप चुप रहे, जाँच अधूरी की और किसी को भी फँसा दिया।
- आपने देखा होगा कि गुजरात में कितने आईपीएस जेल गए। एक तो जेल से बाहर आकर नृत्य कर रहा था।
- वो दृश्य बता रहा था कि भारतीय पुलिस सेवा का इक़बाल ध्वस्त हो चुका है।
- भारतीय पुलिस सेवा की वो तस्वीर फ्रेम कराकर अपने अपने राज्यों के आफिसर्स मेस में लगा दीजिये।
- पतन में भी आनंद होता है। उस तस्वीर को देख आपको कभी कभी आनंद भी आएगा।
- पुलिस सुधार के नाम पर कुछ लोगों ने दुकान चला रखी है।
- इस इंतज़ार में कि कब कोई पद मिलेगा।
- मैं नाम लूं क्या?
- एक राज्य में बीच चुनावों में आपके बीच के लोगों की जातिगत और धार्मिक निष्ठाओं की कहानी सुन कर सन्न रह गया था।
- बताऊँ क्या? क्या आपको पता नहीं? अभी ही देखिये कुछ रिटायर लोग मुकुल की मौत के बहाने पुलिस सुधार का सवाल उठाते उठाते सेटिंग में लग गए हैं।
- ख़ुद जैसे नौकरी में थे तो बहुत सुधार कर गए।
- अपनी खोई हुई ज़मीन को हासिल कीजिये।
- अकेले बोलने में डर लगता है तो एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बोलिये।
- इसके लिए जरूरी है कि आप पहले मथुरा के ज़िलाधिकारी और एसएसपी से यारी दोस्ती में ही पूछ लीजिये कि आखिर वहाँ ये नौबत क्यों आई।
- किसके कहने पर हम ऐसे सनकी लोगों को दो से दो हज़ार होने दिये।
- वे हथियार जमा करते रहे और हम क्यों चुप रहे।
- क्या मुकुल व्यवस्था और राजनीति के किसी ख़तरनाक मंसूबों के कारण मारा गया?
- क्या कल हममें से भी कोई मारा जा सकता है? मुकुल क्यों मारा गया?
- कुछ जवाब उनके होंठों पर देखिये और कुछ उनकी आँखों में ढूंढिये।
- क्या ये मौत आप सबकी नाकामी का परिणाम है? मथुरा के ज़िलाधिकारी, एसएसपी जब भी मिले, जहाँ भी मिले, आफ़िसर मेस से लेकर हज़रतगंज के आइसक्रीम पार्लर तक, पूछिये।
- ख़ुद से भी पूछते रहिए।
- आपके बीच का कोई ईमानदारी से लड़ रहा था तो आप सब चुप थे।
- आपने अकेला छोड़ दिया। भारतीय प्रशासनिक सेवा हो या पुलिस सेवा सबकी यही कहानी है।
- वरना एक दिन किसी पार्क में जब आप रूलर लेकर वॉक कर रहे होंगे और कहीं मुकुल द्विवेदी टकरा गए तो आप उनका सामना कैसे करेंगे?
- यार हमने तुम्हारी मौत के बाद भी जैसा चल रहा था वैसा ही चलने दिया।
- क्या ये जवाब देंगे?
- क्या यार हमने इसी दिन के लिए पुलिस बनने का सपना देखा था कि हम सब अपने अपने जुगाड़ में लग जायेंगे।
- मैं मारा जाऊँगा और तुम जीते जीते जी मर जाओगे।
- कहीं मुकुल ने ये कह दिया तो!
आप सभी की ख़ैरियत चाहने वाला मगर इसके बदले राज्यपाल या सांसद बनने की चाह न रखने वाला रवीश कुमार इस पत्र का लेखक हैं।
रवीश कुमार
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[nextpage title=”रवीश कुमार के ख़त का एसएसपी धर्मेन्द्र यादव द्वारा दिया गया करारा जवाब जिसे पढ़कर रवीश कुमार की हुई बोलती बन्द” ]
प्रिय रवीश जी,
- आपका ख़त पढ़ा। उसमें सहमत होने की भी जगह है और संशोधनों की भी।
- यह आपके पत्र का जबावी हमला कतई नहीं है।
- उसके समानांतर हमारे मनो-जगत का एक प्रस्तुतीकरण है।
- मैं यह जबाबी ख़ुतूत किसी प्रतिस्पर्धा के भाव से नहीं लिख रहा हूँ।
- चूँकि आपने भारतीय पुलिस सेवा और उसमें भी खासकर (उत्तर प्रदेश) को संबोधित किया है, इसलिए एक विनम्रतापूर्ण उत्तर तो बनता है।
- यूँ भी खतों का सौंदर्य उनके प्रेषण में नहीं उत्तर की प्रतीक्षा में निहित रहता है।
- जिस तरह मुकुल का ‘मुस्कराता’ चेहरा आपको व्यथित किये हुए है (और जायज़ भी है कि करे), वह हमें भी सोने नहीं दे रहा.. जो आप ‘सोच’ रहे हैं, हम भी वही सोच रहे हैं।
- आप खुल कर कह दे रहे हैं।
- हम ‘खुलकर’ कह नहीं सकते।
- हमारी ‘आचरण नियमावली’ बदलवा दीजिये, फिर हमारे भी तर्क सुन लीजिये।
- आपको हर सवाल का हम उत्तर नहीं दे सकते। माफ़ कीजियेगा।
- हर सवाल का जवाब है,पर हमारा बोलना ‘जनहित’ में अनुमन्य नहीं है।
- कभी इस वर्दी का दर्द सिरहाने रखकर सोइये, सुबह उठेंगे तो पलकें भारी होंगीं।
- क्या खूब सेवा है जिसकी शुरुआत ‘अधिकारों के निर्बंधन अधिनियम’ से शुरू होती है!
- क्या खूब सेवा है जिसे न हड़ताल का हक़ है न सार्वजनिक विरोध का.. हमारा मौन भी एक उत्तर है।
- अज्ञेय ने भी तो कहा था..
“मौन भी अभिव्यंजना है
जितना तुम्हारा सच है, उतना ही कहो”
हमारा सच जटिल है। वह नकारात्मक भी है। इस बात से इनकार नहीं। आप ने सही कहा कि अपने जमीर का इशारा भी समझो।
क्या करें? खोटे सिक्के अकेले इसी महकमे की टकसाल में नहीं ढलते, कुछ आपके पेशे में भी होंगे।
- आपने भी एक ईमानदार और निर्भीक पत्रकार के तौर पर उसे कई बार खुलकर स्वीकारा भी है।
- चंद खोटे सिक्कों के लिए जिस तरह आपकी पूरी टकसाल जिम्मेदार नहीं, उसी तर्क से हमारी टकसाल जिम्मेदार कैसे हुई?
- हम अपने मातहतों की मौत पर कभी चुप नहीं रहे। हाँ सब एक साथ एक ही तरीके से नहीं बोले।
- कभी फोरम पर कभी बाहर, आवाजें आती रही हैं।
- बदायूं में काट डाले गए सिपाहियों पर भी बोला गया, और शक्तिमान की मौत पर भी।
- पर क्या करें, जिस तरह हमें अपनी वेदना व्यक्त करने के लिए कहा गया है, उस तरह कोई सुनता नहीं।
- अन्य तरीका ‘जनहित’ में अलाउड नहीं। मुक्तिबोध ने कहीं लिखा है कि
“पिस गया वह भीतरी और बाहरी दो कठिन पाटों के बीच
ऐसी ट्रेजेडी है नीच”
- मुकुल और संतोष की इस ‘ट्रेजेडी’ को समझिये सर।
- यही इसी घटना में अगर मुकुल और संतोष ने 24 आदमी ‘कुशलतापूर्वक’ ढेर कर दिए होते, तो आज उन पर 156 (3) में एफआईआर होती।
- मानवाधिकार आयोग की एक टीम ‘ओन स्पॉट’ इन्क्वायरी के लिए मौके पर रवाना हो चुकी होती।
- मजिस्ट्रेट की जाँच के आदेश होते। बहस का केंद्र हमारी ‘क्रूरता’ होती। तब निबंध और लेख कुछ और होते।
- आपने इशारा किया है कि ’झूठे फंसाए गये नौजवानों के किस्से’ बताते हैं कि भारतीय पुलिस सेवा के खंडहर ढहने लगे हैं।
- यदि कभी कोई डॉक्टर आपको आपकी बीमारी का इलाज करने के दौरान गलत सुई (इंजेक्शन) लगा दे (जानबूझकर या अज्ञानतावश), तो क्या आप समूचे चिकित्सा जगत को जिम्मेदार मान लेगें?
- गुजरात का एक खास अधिकारी मेरे निजी मूल्य-जगत से कैसे जुड़ जाता है, यह समझना मुश्किल है।
- हमने कब कहा कि हम बदलना नहीं चाहते।
- एक ख़त इस देश की जनता के भी नाम लिखें कि वो तय करे, उन्हें कैसी पुलिस चाहिए। हम चिल्ला चिल्लाकर कह रहे हैं कि बदल दो हमें।
- बदल दो 1861 के एक्ट की वह प्राथमिकता जो कहती है की ‘गुप्त सूचनाओं’ का संग्रह हमारी पहली ड्यूटी है और जन-सेवा सबसे आखिरी।
- क्यों नहीं जनता अपने जन-प्रतिनिधियों पर पुलिस सुधारों का दबाव बनाती?
- आपको जानकार हैरानी होगी कि अपने इलाकों के थानेदार तय करने में हम पहले वहां के जाति-समीकरण भी देखते हैं!
- इसलिए नहीं कि हम अनिवार्यतः जाति-प्रियता में श्रद्धा रखते हैं।
- इससे उस इलाके की पुलिसिंग आसान हो जाती है।
- कैसे हो जाती है, यह कभी उस इलाके के थानेदार से एक पत्रकार के तौर पर नहीं, आम आदमी बनकर पूछियेगा।
- वह खुलकर बताएगा।
- भारतीय पुलिस सेवा का ‘खंडहर’ यहीं हमारी आपकी आँखों के सामने बना है।
- कुछ स्तम्भ हमने खुद ढहा लिए, कुछ दूसरों ने मरम्मत नहीं होने दिए।
जिसे खंडहर कहा गया है, उसी खंडहर की ईंटें इस देश की कई भव्य और व्यवस्थित इमारतों की नींव में डाल कर उन्हें खड़ा किया गया है। मुकुल और संतोष की शहादत ने हमें झकझोर दिया है। हम सन्न हैं। मनोबल न हिला हो, ऐसी भी बात नहीं है।
- पर हम टूटे नहीं हैं। हमें अपनी चुप्पी को शब्द बनाना आता है हमारा एक मूल्य-जगत है।
- फूको जैसे चिंतक भले ही इसे ‘सत्ता’ के साथ ‘देह’ और ‘दिमाग’ का अनुकूलन कहते हों, पर प्रतिरोध की संस्कृति इधर भी है।
- हाँ, उसमें ‘आवाज’ की लिमिट है और यह भी कथित व्यवस्था बनाये रखने के लिए किया गया बताया जाता है।
यह सही है कि हम में भी वो कमजोरियां घर कर गयी हैं जो जमीर को पंगु बना देती हैं। One who serves his body, serves what is his, not what he is’ (Plato) जैसी बातों में आस्था बनाये रखने वाले लोग कम हो गए हैं।
- पर सच मानिए हम लड़ रहे हैं। जीत में आप लोगों की भी मदद आवश्यक है।
- पुलिस को सिर्फ मसाला मुहैया कराने वाली एजेंसी की नजर से न देखा जाए।
- जो निंदा योग्य है उसे खूब गरियाया जाये, पर उसे हमारी ‘सर्विस’ के प्रतिनिधि के तौर पर न माना जाये।
- हमारी सेवा का प्रतिनिधित्व करने लायक अभी भी बहुत अज्ञात और अल्प-ज्ञात लोग हमारे बीच मौजूद हैं जो न सुधारों के दुकानदार हैं और न आत्म-सम्मान के कारोबारी।
सर्वेशर दयाल सक्सेना ने भी क्या खूब लिखा था-
“…धीरे-धीरे ही घुन लगता है, अनाज मर जाता है।
धीरे-धीरे ही दीमकें सब कुछ चाट जाती हैं।
धीरे-धीरे ही विश्वास खो जाता है, साहस डर जाता है,
संकल्प सो जाता है।
मेरे दोस्तों मैं इस देश का क्या करूँ
जो धीरे-धीरे खाली होता जा रहा है?
भरी बोतलों के पास खाली गिलास-सा पड़ा हुआ है।
मेरे दोस्तों!
धीरे-धीरे कुछ नहीं होता, सिर्फ मौत होती है।
धीरे धीरे कुछ नहीं आता, सिर्फ मौत आती है
सुनो ढोल की लय धीमी होती जा रही है।
धीरे-धीरे एक क्रान्ति यात्रा, शव-यात्रा में बदलती जा रही है।”
- इस ‘धीरे-धीरे’ की गति का उत्तरदायी कौन है। शायद अकेली कोई एक इकाई तो नहीं ही होगी।
- विश्लेषण आप करें। हमें इसका ‘अधिकार’ नहीं है। जो लिख दिया वह भी जोखिम भरा है।
- पर मुकुल और संतोष के जोखिम के आगे तो नगण्य ही है।
- जाते जाते आदत से मजबूर, केदारनाथ अग्रवाल की यह पंक्तियाँ भी कह दूँ जो हमारी पीड़ा पर अक्सर सटीक चिपकती हैं …
‘सबसे आगे हम हैं
पांव दुखाने में
सबसे पीछे हम हैं
पांव पुजाने में
सबसे ऊपर हम हैं
व्योम झुकाने में
सबसे नीचे हम हैं
नींव उठाने में’
मजदूरों के लिखी गयी यह रचना कुछ हमारा भी दर्द कह जाती है। हाँ, मजदूरों को जो बगावत का हक़ लोकतंत्र कहलाता है उसे हमारे यहाँ कुछ और कहा जाता है। इसी अन्तर्संघर्ष में मुकुल और संतोष कब जवाहर बाग में घिर गए,उन्हें पता ही नहीं चला होगा। उन्हें प्रणाम।
उम्मीद है आपको पत्र मिल जायेगा।
धर्मेन्द्र
भारतीय पुलिस सेवा (उत्तर प्रदेश)
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