बनारस: इस शहर को बयां कैसे करें ये अपने आप में एक चुनौती है, शहर क्या होता है? कुछ मीनारें, कुछ चौक, कुछ दुकानें, कुछ शौक, लेकिन बनारस शहर इन भौतिक चीज़ों से नहीं बल्कि यहाँ के निवासियों के अंदाज़ से जाना जाता है ‘बनारसिया अंदाज़’। आप इस शहर को कैसे समझना चाहते हैं? किसी अशोककालीन स्तंभ से या बनारसियों के दंभ से?, घूमना कहाँ चाहते हैं? राजा के किले के बाहर लगी गुलमोहर की कलियों में या अस्सी घाट की गलियों में? सुनना क्या चाहते हैं? शहर के किसी कोने में चल रही पारंपरिक कौव्वालियाँ या फिर गौदौलिया में मुंह में पान ठुंसे हुए चचा की गालियाँ?, आराम कहाँ करना चाहते हैं? किसी आलीशान पांच सितारा होटल की खाट पर या भी दशाश्वमेध घाट पर? समझाना बस इतना चाहता था कि बनारस या तो आप घूम सकते हैं या फिर आप जी सकते हैं, फैसला आपका है।
एक दिन कोई चचा बता रहे थे कि विदेशों में लाफिंग क्लब होते हैं, जहाँ निराश लोगों को हंसाया जाता है, हमारे भोले बाबा ने भारतवासियों के लिए इस कार्य हेतु एक पूरा शहर ही बसा दिया है। चाय की दुकानों पर बैठे अलग अलग पेशों से लोगों को अगर दूर खड़ा होकर कोई गैर बनारसी देखेगा तो शायद यही कहेगा कि ये लोग पागल हैं। सच है, हम बनारसी पागल ही हैं, प्लानिंग और मैनेजमेंट के इस दौर में हम ‘वर्तमान’ में जीते हैं, कल क्या होगा और कल क्या हुआ ये सभी बाबा विश्वनाथ पर छोड़ देते हैं।
मण्डुआडीह रेलवे क्रॉसिंग पर एक बार फँस कर देखिये, और दृश्य समझिये, “का हो गुरु, क्योटो में भी ई कुल होला का?, ट्रेन नहीं दिखी तो फाटक मैन पर ही दबाव बना देंगे “हरे, धत्त सारे, खोल फटकवा, ट्रेनवा देखातै ना हौ, अबले त घरे पहुँचल होइत, उसी दौरान एक चाय भी पी लेंगे, पान भी दबा लेंगे, किसी की शादी के अगुआ भी बन जाएंगे और किसी को नौकरी दिलवाने का बयाना भी ले लेंगे’। इतना सब कुछ बनारस में कुछ लम्हों में हो जाता है, और हमारे ऊपर आरोप है कि हम आलसी हैं। एक बनारसी के लिए हर दिन त्यौहार और हर पल उत्सव है, बस देखने का नजरिया जरूर चाहिए।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव बनारस के लिए ऐसे तमाम उत्सवों में एक ही एक उत्सव जैसा है। प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होने के कारण पूरे देश की नज़र बनारस पर टिकी हुई है। पर बनारस ज्यादा दूर तक नहीं देख पाता, बनारस के पास अपनी ही कई समस्याएं हैं। यहाँ जेबें खाली हों पर मुलाकात खाली हाथ नहीं होती, ये मोक्ष की नगरी भी है और सुकून का शहर भी, यहाँ की तहजीब में भी एक अल्हड़पना है, यहाँ की गलियों में सम्पूर्ण भारत बसता है, इसलिए यहाँ के मुद्दों को समझना बेहद मुश्किल हो जाता है।
क्या हैं बनारस के मुद्दे
सबसे मजेदार बात है कि अगर कोई गैर-बनारसी किसी बनारसी से पूछता है कि यहाँ क्या समस्याएं हैं तो वह बड़े गर्व से बोल देगा “कौनो दिक्कत नाहीं बा,
लेकिन हाँ एक बनारसी के रूप में मैंने यहाँ की मूल समस्यायों को समझने की कोशिश की है, आशा करूँगा कि नयी सरकार इस पर ध्यान जरूर देगी।
1. सकरी गलियों और रेलवे स्टेशन और बस-अड्डा आमने सामने होने के कारण इस शहर में ट्रैफिक मैनेज कर पाना मुश्किल जरूर है, पर अभी तक किसी सरकार द्वारा कोई ख़ास प्रयास नहीं किये गए, एक आध नए फ्लाईओवर बन जाते तो लड़कों की नई पैशन प्रो का डिस्क ब्रेक घिसने से बच जाता।
2. रामनगर से लेकर खेवली, कैथी समेत पूरे शहर के पार्क, चौराहों, और घाटों की पौराणिक गरिमा को अगर संजो कर रखने का प्रयास हो जाता तो फैंटम बनारसियों के लिए भी इंस्टाग्राम पोस्ट डालने का जुगाड़ हो जाता।
3. बलुआ घाट, सामने घाट और सराय मोहना जैसे सालों से लंबित पुल आस-पास चाय पीने वाले बुजुर्गों के जीवित रहते ही बन जाते तो अच्छा था।
4. चौराहों पर कूड़ेदानों की संख्या बढ़ा दी जाती तो रिंकू सिंह टाइप के लोग भी गुटका उसमें थूक कर स्वच्छ भारत अभियान में अपना सहयोग दे देते।
5. विद्या बालन जी टीवी से बाहर निकल बनारस आती तो समझ आता कि कितने शौचालय हैं शहर में, कुछ और बन जाते तो नील गाय का बाथरूम यूज़ करना बंद कर देते लोग।
6. पहलवानों के लिए अखाड़े कुछ बने जरूर हैं, पर अभी कम हैं, साथ ही साथ अगर शिवपुर का स्टेडियम भी बन जाता तो बनारसी युवा अपनी ऊर्जा गंगा में ढेला फेंकने की जगह भाला और शॉटपुट फ़ेंकने में लगा देते।
7. तमाम कुंडों और जलाशयों को कोई भी सरकार तरजीह क्यों नहीं देती? डीएम साहब अतिक्रमण हटा देते तो हर महीना दू किलो रोहू पहुंचा दिया जाता बंगला पर, समस्या कहाँ है?
8. शिव के त्रिशूल और गंगा के गर्भ में बसे इस शहर की हवा का कुछ करिए साहब लोग, एक-आध बड़ी पुरानी गाड़ियों को बंद कर देते तो प्रदूषण भी कम हो जाता और जाम भी।
9. शिक्षा के नाम पर ये जो पूरे शहर में उगाही चल रही है, मनमानी फीस वसूली जा रही है उसका क्या? विषय थोड़ा गंभीर है, इसपर कोई चुटकुला समझ नहीं आया।
10. अखिलेश और मोदीजी का झगड़ा ख़त्म हो जाता तो कोई ये बता देता कि 24 घंटे बिजली कब से आएगी? ट्रेक्टर की बैटरी से टीवी की जगह ट्राली ही खींची जाए तो अच्छा है।
मुद्दे तो और भी कई हैं, बुनकरों के, मछुआरों के, रिक्शा वालों के, किसानों के, लिखते-लिखते मेरा धैर्य और पढ़ते-पढ़ते आपका डाटा ख़त्म हो जाएगा, उम्मीद राज्य की नयी सरकार और हमारे सांसद से है कि साहब लोग कुछ इधर भी ध्यान दे दें।
बाकी बनारसवासियों का काम तो चल ही रहा है, बिजली नहीं देंगे तो भी मिथुन की फिल्म चलेगी, पानी नहीं देंगे तो चांपाकल से ले लेंगे, सड़क नहीं बनाएंगे तो बोलेरो टॉप मॉडल जिंदाबाद। बनारस को ठगों का शहर भी कहते हैं, पर सच्चाई ये है कि आज़ादी से लेकर आजतक किसी भी सरकार में, ठगा हमेशा बनारस ही गया है।
चुनावी समीकरण
भाजपा का गढ़ कहे जाने वाले बनारस में इस बार प्रधानमंत्री की गरिमा साख पर है, 3 दिन बनारस में रुक कर प्रचार की कमान थामने वाले प्रधानमंत्री की जवाबदेही जरूर होगी नतीजे आने के बाद। अपने परंपरागत वोट बैंक संग बसपा ‘अंडर-करंट’ का दावा कर रही है वहीँ ‘अच्छे लड़को’ के दम पर सपा अपने प्रदर्शन को सुधारने का दावा। आइए कम शब्दों में नजर डालते हैं क्या हैं बनारस के समीकरण!
1. पिंडरा में अजय राय ‘अच्छे लड़कों’ के बल पर हुंकार जरूर भर रहे हैं, पर इस बार राह उतनी आसान नहीं है, अपनी ही बिरादरी के अवधेश सिंह राय से है। अवधेश 1989 से ही चुनाव लड़ते आ रहे हैं और अजय राय के ‘बड़का साहब’ वाले रवैय्ये की वजह से उन्हें बिरादरी के कुछ लोगों का साथ भी है। स्थानीय लोगों की मानें तो यहाँ सीढ़ी लड़ाई गठबंधन और भाजपा के बीच है
2 वाराणसी उत्तर में भाजपा के मौजूदा विधायक को चुनौती दे रहे हैं बसपा के सुजीत मौर्या, रविन्द्र जैसवाल को ‘मोदी फैक्टर’ और सुजीत को अपनी मेहनत और ‘वोट बैंक’ पर पूरा भरोसा है, देखेंगे जीत किसकी होती है।
3. वाराणसी दक्षिण इस चुनाव की सबसे चर्चित सीट है, कई बार से विधायक ‘दादा’ को टिकट ना मिलने से लोगों की नाराजगी सबके सामने थी, मोदी के हाथ पकड़ बाबा विश्वनाथ के दर्शन करवाये फिर भी दादा के सुरों में बगावत दिखी। ऐसे में यहाँ ‘दादा फैक्टर’ अगर ‘मोदी फैक्टर’ पर हावी हुआ तो भाजपा की मुश्किलें बढ़ा सकता है। फिलहाल यहाँ लड़ाई गठबंधन के कद्दावर नेता और पूर्व सांसद राजेश मिश्रा से है
4. वाराणसी कैंट भी टिकट के बंटवारे को लेकर हुए विवाद के लिए चर्चा में रहा, यहाँ के भाजपा नेता की व्यक्तिगत छवि कुछ ख़ास अच्छी नहीं है, स्थानीय लोगों की नाराजगी का सीधा फायदा गठबंधन के उम्मीदवार अनिल श्रीवास्तव को है।
5. सेवापुरी भी बनारस की मजेदार सीटों में से एक है, यहाँ मंत्री सुरेंद्र पटेल की इज़्ज़त दाव पर है। स्थानीय लोगों की मानें तो लोकसभा चुनाव में वोट ना मिलने से नाराज़ होकर सुरेंद्र ने कह दिया था “वोट दिहे ह, अब कामो मोदी से करवा लेइहा”, सुरेंद्र ने ‘जमीन’ छोड़ी तो बसपा के उम्मीदवार और दागी छवि के नेता महेंद्र पांडेय इस बार काफी उम्मीद लेकर जनता के बीच हैं, 5 साल क्षेत्र में भी रहे हैं, लेकिन इस विधानसभा सीट की ‘ब्लैक हॉर्स’ हो सकते हैं अपना दल
के कैंडिडेट नीलू पटेल। यहाँ का मुकाबला पूरे शहर के सबसे रोचक मुकाबलों में से एक है।
6. रोहनियां में खुद कृष्णा पटेल के खड़े होने की वजह से लड़ाई त्रिकोणीय हो गयी है, तो शिवपुर के बसपा और सपा के बीच सीधी लड़ाई दिखती है, अजगरा सुरक्षित सीट है और वहां की बाजी किसी ओर भी पलट सकती है। ये तीनों ऐसी सीटें हैं जहाँ ‘वोटर्स टर्नआउट’ का भी काफी हद तक असर देखने को मिलेगा।
लगभग 28 लाख मतदाताओं वाले इस शहर की विविधता का अंदाज़ आप इसी बात से लगा सकते हैं कि पूरे प्रदेश में सबसे ज्यादा पूजन सामाग्री भी यहीं बिकती है और शराब भी। अलौकिक शान्ति के लिए मशहूर काशी को सुचारू रूप से व्यवस्थित बनाना अब बेहद जरूरी है। काशी ने कभी किसी से उम्मीद नहीं की है, यहाँ लोग बस देना जानते हैं, बिना किसी शर्त और उम्मीद के।
हम विपरीत परिस्थितियों में भी मुस्कुराना जानते हैं, पर दुनिया के सबसे पुराने शहर के आशीर्वाद से जो जीवन में आगे बढ़ गए अगर वो लौट नहीं सकते तो एक बार मुड़ कर हमारी स्थिति पर हंस ही लें, हम भोले हैं, यही समझ कर संतोष कर लेंगे कि मुस्कुरा कर याद तो किया।
इस शहर की सादगी ही इसकी खूबसूरती है, बनारस को क्योटो नहीं एक बार फिर से ‘काशी’ बनते हुए देखना चाहता हूँ, वो काशी जिसकी बौद्धिक क्षमता का लोहा पूरा विश्व मानता था, वो काशी जिसका साहित्य और कला के क्षेत्र में वर्चस्व था। आज का नया बनारस थोड़ा रास्ते से भटका जरूर है, पर मेरा मानना है कि यहाँ के बच्चे-बच्चे में इतिहास लिखने का सामर्थ्य है। बाकी मैं बनारस क्या है आपको समझा सकूँ इतनी मेरी औकात नहीं है।
और हाँ चुनाव आयोग के लिए ख़ास नसीहत “इहाँ क गाली, गाली ना हौ, इज्जत के थाली हौ, पूरी-कचौरी खा, लौंगलता चांपा और पान दबा के मस्त रहत जा”
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