एक नलकूप हर रोज धरती की कोख से सात से आठ लाख लीटर पानी खींच लेता है। ये सुनकर आप को हैरानी जरूर होगी लेकिन ये सच है। पानी को व्यर्थ बहाने में हम कतई नहीं सकुचाते हैं, लेकिन कम लोग ही इस हकीकत से वाकिफ होंगे। एक मोटे अनुमान के मुताबिक केवल लखनऊ में हजारों की संख्या में लगे सरकारी, गैर सरकारी नलकूपों, सबमर्सिबल से हर दिन 90 करोड़ लीटर भूजल का बेहिसाब दोहन कर रहे हैं।
चिंताजनक यह है कि बेलगाम दोहन के चलते यह आंकड़ा दिनोंदिन बढ़ रहा है। शहर के भूजल स्तर में सालाना सिर्फ 70 सेंटीमीटर की औसत गिरावट का परिणाम यह है कि पृथ्वी के गर्भ से 28 करोड़ लीटर भूजल हर साल गायब हो रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार चिंताजनक यह है कि इस जमीनी पानी की भरपाई नामुमकिन है। बीते दस वर्षों की ही बात करें तो राजधानी में अंधाधुंध दोहन के कारण जमीन के गर्भ में विभिन्न तहों में मौजूद कुदरती पानी जिस तरह से गायब हो रहा है उससे भूपर्यावर्णीय आपदाओं का खतरा बढ़ रहा है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के पूर्व वैज्ञानिक बीबी त्रिवेदी इसे अपूर्णीय क्षति मानते हैं।
दरअसल भूवैज्ञानिकों के अनुसार गंगा के मैदानी क्षेत्र में जमीन के नीचे बलुई स्ट्रेटा में पानी मौजूद रहता है। निरंतर दोहन के चलते इस स्ट्रेटा की नमी खो रही है, जिससे जमीन का कुदरती लचीलापन समाप्त हो गया है। भूवैज्ञानिकों को आशंका है कि जिस तरह से जमीन दोहन के बाद खाली हो रही है उससे जमीन दरकने की घटनाएं हो सकती है। दरअसल बालू के कणों को बांधकर रखने वाले ह्यूमस (नमी) खत्म होने से मिट्टी भुरभुरी होकर ढीली हो जाती है। गौर कीजिए कि हम करोड़ों लीटर पानी निरंतर जमीनी जल भंडारों से खींच रहे हैं ऐसे में धरा की क्या स्थिति होगी?
भूवैज्ञानिक के अनुसार भूजल स्नोतों की दृष्टि से लखनऊ के हालात बेहद गंभीर हैं। भूमिगत जल धाराओं को पहुंचने वाली इस क्षति का सतह के ऊपर से आंकलन कर पाना नियोजकों के लिए मुमकिन नहीं है। इसीलिए भावी खतरे को सरकारी तंत्र भांप पाने में अब तक विफल रहा है। शर्मा कहते हैं कि विडंबना यह है कि इसके लिए कोई अध्ययन तक नहीं किया जा रहा है। यह तब है जबकि अस्सी फीसद पेयजल आपूर्ति भूजल के ही भरोसे है। अन्य व्यावसायिक, औद्योगिक व भवन निर्माण गतिविधियां भी पूरी तरह से भूजल पर टिकी हैं। यहां तक कि नलकूपों के निर्माण व डेवलपमेंट में ही हजारों लीटर भूजल बर्बाद हो जाता है।