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वृद्धआश्रम नहीं है हमारी संस्कृति का हिस्सा, फिर भी क्यों छोड़ जाते है बेटे…?

फर्रुखाबादः देश कभी भारतीय संस्कृति के लिए पूरे विश्व में जाना जाता था। लेकिन 21 वीं सदी में औलाद अपनी माँ को भी घर में भी जगह नहीं दे पा रहा है। जो मां अपने बेटे के लिए बचपन में गीले बिस्तर पर खुद सोती थी, लेकिन बेटे को सूखे में सुलाती थी। वही मां आज अपने बेटे व बहू के कारण वृद्धा आश्रमों में अपना जीवन काटने पर मजबूर है। जब बेटे की तबियत खराब होती तो वह पूरी रात अपने बेटे की सेवा में गुजार देती थी। वही बेटा आज माँ की तबियत खराब होती है तो उसको घर से निकाल देता है। सतयुग में श्रवण कुमार ने अपने अंधे माँ-बाप को कंधे पर डोली में बैठाकर चारो धाम की यात्रा कराई थी। कलयुगी बेटा श्रवण कुमार अपनी मां को वृद्धा आश्रम की यात्रा करा रहा है।

आज भी बेटे के खिलाफ नहीं सुनना चाहती एक शब्द

शहर के वृद्धा आश्रम में जब वृद्ध माताओं से बातचीत की गई तो उनका दर्द उनके आंखों से छलक आया। कुछ माएं तो ऐसी भी थी कि जो अपने बेटे के खिलाफ आज भी एक शब्द नहीं सुनना चाहती। आखिर सुन भी कैसे सकती है, मां जो ठहरी। जब पिपरगांव की रहने वाली कलावती से बातचीत की गई तो बताया कि उनके दो बेटे हैं। दोनों का नाम बड़े ही लाड प्यार के साथ रखा था। एक का नाम घन श्याम सिंह तो दूसरे का नाम शेरसिंह रखा।

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बेटे के पैदा होने पर मनाई थी खुशियां

कलावती ने बताया कि जब दोनों पैदा हुए थे तो बड़ी ही धूमधाम के साथ उनका नामकरण किया गया था। उनके पैदा होने पर घर में खुशियां मनाई जाने लगी। मानों जैसे होली-दीपावली का त्योहार हो। बच्चों के लालन पालन में उस मां ने अपनी रातों की नींदें खराब की। बच्चे को कोईतकलीफ ना हो इसके लिए हरसंभव इंतजाम किया। धीरे धीरे समय बदला बच्चे बड़े हो गए। एक एक करके दोनों की शादी हो गई। घर में खुशियों का माहौल बन गया, लेकिन कलावती को क्या पता था कि उनकी खुशियां बस चंद पल की मेहमान है।

लोगों से मिन्नतें करके निकलवाया था जेल से

वृद्धाआश्रम में रह रही कलावती ने बताया कि एक साल पहले बहू की वजह से आश्रम में चली आई थी। उन्हें गम तो सबसे ज्यादा इस बात का है कि वृद्धाआश्रम जाते समय उनके बेटे ने रोका तक नहीं। खुशी जताते हुए कहा कि जब भी बीमार होती हूं तो आश्रम वाले ही बेटे की तरह मेरी देखभाल करते है। बेटा जब जेल में था तब उसके लिए दर्जनों लोगों के पैर पकड़कर उसको बाहर निकलवाया था। वही बेटा आज हमको नहीं जानता कि माँ की क्या हालत है।

वृद्धाआश्रम में मिलता है सूकुन

वहीं नारायणपुर की रहने वाली हंसा देवी ने बताया कि उनके तीन बेटे है राजबहादुर, राजकिशोर, राजकपूर। बताया कि जबसे बेटों का विवाह हुआ तबसे बेटों का नजरिया उनके प्रति बदल गया। जिस बेटे के लालन पालन में अपनी रातों की नींदे खराब की उस बेटे द्वारा तिरस्कृत किए जाने से बेहद ही आहत है। कहा कि बड़ी खुशी के साथ घर में बहू लाई थी। लेकिन समय के साथ सबकुछ बदल गया। बहुओं के आगे मेरी कोई इज्जत नहीं होती।

बहुएं सास के रूप में ढूंढ़ती हैं काम वाली बाई

हंसा देवी ने बताया कि आजकल की बहुओं को सास नहीं चाहिए होता है उन्हें सास के रूप में काम वाली बाई चाहिए होता है जो उनके कामों में हाथ बटा सकें। अब जमाना बदल चुका है बहुओं को सासु मां में अपनी मां नहीं दिखाई देती हैं। कहा कि पहले जैसा काम मेरा शरीर नहीं कर सकता है, लेकिन बहुओं को काम चाहिये। रोज झगड़ा करती थी जब अपने बेटे से इस बात की शिकायत करती तो उल्टा वह मुझ पर ही रौब झाड़ता था। परेशान होकर घर छोड़ने पर मजबूर हो गई। यहां आकर रहने लगी यहां पर मुझे सुकून मिलता है।

वृद्धआश्रम नहीं है हमारी संस्कृति का हिस्सा

वृद्धा आश्रम संचालक राजेश कुमार का कहना है कि जमाना बदल गया है। अपनी मां को वृद्धा आश्रम में छोड़ के जाने के बाद बेटे वापस मां से मिलने तक नहीं आते। कहा कि वृद्धआश्रम हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं हैयदि बेटा अपनी मां के बताए हुए सद्मार्ग पर चलते तो शायद यह बुजुर्ग महिलाएं आज इस आश्रम में नहीं होती।

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